इंतजार उत्सव का
नागपुर से मेरी ट्रेन रफ्ता-रफ्ता आगे की ओर बढ़ने लगी. मेरे बगल में एक लड़की भी सफर कर रही थी. वह अपने मामा के घर जा रही थी.
ट्रेन अगले स्टेशन पर पहुंची ही थी कि, तेज बारिश शुरू हो गई. पानी खिड़की से ट्रेन के अंदर आने लगी. लड़की ने खिड़की बंद करने की कोशिश की, लेकिन मेहनत बेकार गई.
उसने मुझसे कहा- “प्लीज खिड़की बंद कर दीजिए”. खिड़की बंद करते ही उसकी ऊंगली खिड़की में दब गई. वह चीख पड़ी. मैंने कहा- ” कल इसी ट्रेन के नीचे एक आदमी आ गया था, उसने उफ भी नहीं किया और तुम ऊंगली दबने से चीख रही हो”. मेरी बात सुनकर वह चुप हो गई.
तभी बर्थ में रखा मेरा अटैची उस लड़की के पैर पर जा गिरा. अफसोस वश मैंने उसे सॉरी कहा. वह बोली- “आपने बहुत आसानी से सॉरी बोल दिया, क्या सॉरी कोई विलायती साबुन है जिसे लगाने से दाग धूल जाता है ?”. इस बार उसका जवाब सुनकर मैं चुप हो गया. उस हाजिर जवाब लड़की की बात सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा.
ट्रेन गोंदिया स्टेशन के पास पहुंच चुकी थी. बारिश भी थम चुकी थी. स्टेशन पर ट्रेन रूकते ही मैंने उसे चाय के लिए ऑफर किया. आपसी परिचय होने के बाद मैंने उसे अखबार में छपी अपनी कविता की ओर इशारा किया. कविता के नीचे नाम देखकर वह चौंक पड़ी. वह लड़की कभी कविता को देखती तो कभी मुझे.
बात ही बात में मैंने उससे पूछ बैठा- ” दोस्ती करोगी मुझसे ?”. वह बोली- आप जैसे लड़कों के नजर में शारीरिक संबंध का नाम ही दोस्ती है. नहीं, मैं ऐसे दोस्ती नहीं करना चाहती. मैं आपको नहीं, आपके व्यक्तित्व को चाहती हूं, आपके अंदर के कविमन को चाहती हूं. मैंने एक जमाने से उससे दोस्ती भी कर रखी है. इसका जिंदा सबूत वो गुमनाम बधाई खत हैं, जो अखबारों में आपके रचना प्रकाशन के हर चौथे रोज बाद आपको मिल जाते हैं. जानते हो वो खत किसके होते हैं ? वो खत मैं ही लिखा करती हूं. उसका जवाब सुन मैं अवाक रह गया.
ट्रेन डोंगरगढ़ स्टेशन पहुंच चुकी थी. लड़की ट्रेन से उतर गई. मैं भी साथ में उतर गया. मैंने उससे देवीमाता के मंदिर चलने का अनुरोध किया. उसने मेरा अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया.
मंदिर पहुंचकर हमने नारियल तोड़े और एक दूसरे के खुशी के लिए देवीमाता से प्रार्थना की. सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते और उतरते वक्त उस लड़की का नाम मेरे जेहन में था. वापस स्टेशन पहुंचकर उसने मुझे अलविदा कहा और नवरात्र उत्सव में एक निश्चित तिथि को देवीमाता के मंदिर में पुन: मिलने का वादा करके वहां से चली गई.
मैंने अपना ट्रेन पकड़ा और भिलाई की ओर रवाना हो गया. भिलाई-3 स्टेशन पर उतरकर मैं पैदल अपने गंतव्य हथखोज की ओर बढ़ने लगा. हथखोज-उमदा रोड पर मैंने एक लड़की को देखा. जिसकी सूरत हूबहू उस लड़की से मिलती थी जो मेरे साथ ट्रेन में सफर कर रही थी. मैंने उस लड़की को रोका और देवीमाता के मंदिर का प्रसाद दिया. मैं समझ गया था, वह हमसफर और कोई नहीं बल्कि इसी लड़की की याद थी जो सफर में मेरे साथ थी.
मेरे कदम घर की ओर बढ़ने लगे. परन्तु मेरे अंदर एक ही बात कौंध रही थी. “क्या नवरात्र उत्सव में उस निश्चित तारीख को देवीमाता के मंदिर में वह लड़की मुझे सचमुच में पुन: मिलेगी” ?.