आ तो जाती है मेरे दर पर ख़ुशी
आ तो जाती है मेरे दर पर ख़ुशी
पर ठहरती ये नहीं है दो घड़ी
कल भी हमको थी ज़रूरत आपकी
आपकी तो आज भी लगती कमी
दिल पिघलते हैं सदा इस आग में
जो न जलती वो कहाँ की आशिक़ी
किस तरह मालूम होगा ये अगर
दोस्ती में छिप रही जब दुश्मनी
सिर्फ़ झुग्गी झोंपड़ी में इस क़दर
क़ैद होकर रह गई है मुफ़लिसी
ये ही मंज़र आम है चारों तरफ़
है कहीं लाचारगी या बेबसी
तब से ईमाँ और दिल ख़तरे में हैं
आदमी जब से हुआ है लालची
हर सुखनवर है क़लम का जंगजू
सोज़े-दिल का है फ़साना शायरी
ज़िन्दगी का ये मरज़ है लाइलाज
दर्दोग़म ‘आनन्द’ देती ज़िन्दगी
– डॉ आनन्द किशोर