आ जाओ न प्रिय प्रवास तुम
नाच रहे हैं जंगल-जंगल,
नैना बाँध स्वप्न के घुँघरू।
पूछ रहे हैं कहाँ खिले हो,
कौन डाल के नीचे ठहरूँ?
सघन वनों के काहीपन में, खिल जाओ न प्रिय पलाश तुम!
आ जाओ न प्रिय सुवास तुम।
नीरस स्वर हो गए खगों के, सा रे गा मा गाते – गाते।
एक तुम्हारे होने भर से, इनको मंगल स्वर मिल जाते।
पुरवा के एकाकीपन में,
शाखों ने संगीत भरा है।
सूरज ने वन के आँगन में
आकर शुभ रंग पीत भरा है।
किरणों से लेपित आँगन में, छा जाओ न प्रिय प्रकाश तुम।
आतीं-जातीं लहर नदी की, हिल-मिल कर परिहास कर रहीं।
मोर कोकिलों का, पर कोकिल कौओं का उपहास कर रहीं।
कितना जीवित, आनंदित है
जंगल का परिवार प्रियतमे।
व्यथित हृदय पतवार बनाकर,
आ जाओ इस पार प्रियतमे।
नैसर्गिक पावन प्रांतर में, अब कर लो न प्रिय प्रवास तुम।
© शिवा अवस्थी