आ अब लौट चलें…..!
” आ लौट चलें हम…
उस गांव की ओर….
उस जंगल की छांव की ओर…
जहां हमें सामाजिकता की एक परिभाषा मिला…!
जहां हमें तन ढकने की एक विचार…..
और सुंदर संस्कृति को एक अक्षुण्ण आकार मिला…!
आ अब लौट चलें हम….
उस आब-हवाओं की पनाह में ,
उस पगडंडी-बाट में ,
जहां किसी आई.सी.यू. की तरह..
ऑक्सीजन की कोई फीस नहीं…!
जहां किसी नई-नई इन सड़कों की तरह…
जिंदगी में कोई भटकाव नहीं…!
आ लौट चलें हम….
उस मिट्टी की खुशबू की ओर…!
आ लौट चलें हम….
उस फूलवारी-बागों की क्यारी की ओर….!
जहां अपनेपन की प्यार…
पनपती और संवरती है…!
जहां की महकती हवाओं में…
किसी ईत्र की तरह,
मन कभी बहकती और भटकती नहीं है…!
आ अब लौट चलें हम…..
उस पनघट की डगर……!
मधुर कलरव करती…
उस पंछी की गेह-गहवर…!
जहां वसुधैव कुटुंबकम्…
वसुंधरा बसती है…!
जहां पहुंचने…
चंचल मेघ मल्हार-पवन भी तरसती है….!! ”
*****************∆∆∆******************