आज़ाद गज़लें
आज़ाद गज़लें
जिंदगी यूँ ही जज्बात से नहीं चलती
फक़त उम्दे खयालात से नहीं चलती ।
रुखसत होता हूँ रोज घर से रोज़ी को
गृहस्थी चंदे या खैरात से नहीं चलती ।
मुसलसल जंग है जरूरी जरूरतों से
हसीं ख्वाबो एह्ससात से नहीं चलती ।
रज़ामंदी रूह की लाज़मी है मुहब्बत में
बस जिस्मों के मुलाकात से नहीं चलती ।
कब्र की अहमियत भी समझो गाफिलों
दुनिया सिर्फ़ आबे हयात से नहीं चलती ।
-अजय प्रसाद
प्यार करना तू अपनी औकात देख कर
हैसियत ही नहीं बल्कि जात देख कर ।
दिल और दिमाग दोंनो तू रखना दुरुस्त
इश्क़ फरमाना घर के हालात देख कर ।
होशो हवास न खोना आशिक़ी में यारों
ज़िंदगी ज़ुल्म ढाती है ज़ज्बात देख कर ।
करना तारीफे हुस्न मगर कायदे के साथ
खलती है खूबसूरती मुश्किलात देख कर ।
क्या तू भी अजय, किसको समझा रहा
डरते कहाँ हैं ये लोग हादसात देख कर
-अजय प्रसाद
‘वो’ जिनके नाम से शायरीयाँ सुनाते हो
क्या सचमुच तुम इतना प्यार जताते हो।
प्यार कभी शब्दों में वयां होता है क्या
फ़िर क्योंकर भला खुद पर इतराते हो।
तारीफ़ तन-बदन तक सीमित रहता है
तो रिश्ता रूह का है क्यों बतलाते हो ।
फिदा हो जाते हो उसकी अदाओं पर
खुबसूरती पे ही उसके तुम मर जाते हो।
हक़ीक़त है कि तुम्हें प्रेम हुआ ही नहीं
बस दैहिक आकर्षण में उलझ जाते हो ।
अव्यक्त प्रेम सर्बोत्तम है जान लो तुम
जिसे बिना अभिव्यक्ति के ही निभाते हो ।
-अजय प्रसाद
इश्क़ पे बदनुमा दाग है ताजमहल
फक़त कब्रे मुमताज है ताज महल ।
होगा दुनिया के लिए सातवां अजूबा
मेरे लिए तो इक लाश है ताज महल ।
फना जो खुद हुआ नहीं मुहब्बत में
उस की जिंदा मिसाल है ताजमहल ।
लोग खो जाते हैं इसकी खूबसूरती में
भूल जाते हैं कि उदास है ताजमहल ।
किसी की मौत पे इतना बड़ा मज़ाक
प्रेम का इक बस उपहास है ताजमहल ।
या खुदा इतनी खुदगर्जी आशिकी में
शाहजहाँ का मनोविकार है ताजमहल ।
अब छोड़ो भी तुम अजय गुस्सा करना
समझ लो कि इतिहास है ताज महल ।
-अजय प्रसाद
मेरी आँखों में तेरे ख्वाब रहने दे
उम्र भर को दिले बेताब रहने दे।
कुछ पल को ही सही , मान मेरी
मुझे अपना इंतखाब रहने दे ।
सारे नजराने ठुकरा दे गम नहीं
अपने हाथो में मेरा गुलाब रहने दे ।
जानता हूँ राज़ तेरी ख़ामोशी का
सवाल तो सुन ले, जबाब रहने दे ।
अब तो हक़ीक़त का कर सामना
सपनों से निकल, किताब रहने दे ।
-अजय प्रसाद
भूखे पेट तो प्यार नहीं होता
खाली जेब बाज़ार नहीं होता ।
पढ़ा-लिखा के घर पे बिठातें हैं
यूँही कोई बेरोज़गार नहीं होता ।
बेलने पड़ते हैं पापड़ क्या क्या
आसानी से सरकार नहीं होता ।
आजकल के बच्चों से क्या कहें
सँग रहना ही परिवार नहीं होता ।
दिल में गर खुलूस न हो अजय
तो फ़िर सेवा,सत्कार नहीं होता।
-अजय प्रसाद
नयी गज़ल से उसे नवाज़ दूँगा
खामोश रह कर आवाज़ दूँगा ।
बहुत खुश रहूँगा उसे भुला कर
आशिक़ी को नया रिवाज़ दूँगा ।
ज़िक्र नहीं करूँगा ज़िंदगी भर
फिक्र को नया ये अंदाज़ दूँगा ।
रश्क करेंगे रक़ीब भी मेरे साथ
नफ़रत करने को समाज दूँगा ।
ज़ुर्रत कर नहीं सकता दिल भी
अजय इतना उसे रियाज़ दूँगा ।
-अजय प्रसाद
खुदा भी आजकल खुद में ही परेशान होगा
ऊपर से जब कभी वो देखता इन्सान होगा ।
किस वास्ते थी बनाई कायनात के साथ हमें
और क्या हम बनकर हैं सोंचकर हैरान होगा ।
किया था मालामाल हमें दौलत-ए-कुदरत से
सोंचा था कि जीना हमारा बेहद आसान होगा ।
खूबसूरती अता की थी धरती को बेमिसाल
क्या पता था कि हिफाज़त में बेईमान होगा ।
दिलो-दिमाग दिये थे मिलजुलकर रहने को
इल्म न था लड़ने को हिन्दु मुसलमान होगा ।
खुदा तो खैर खुदा है लाजिमी है दुखी होना
देख कर हरक़तें हमारी शर्मिन्दा शैतान होगा ।
-अजय प्रसाद
और होंगे तेरे रूप पर मरने वाले
हम नही है कुछ भी करने वाले।
मुझको कबूल कर तू मेरी तरहा
हम नहीं है इंकार से डरने वाले ।
हाँ चाहता हूँ तुझे ये सच है मगर
हद से आगे नहीं हैं गुजरने वाले।
नये दौर का नया आशिक़ हूँ मैं
हम नहीं कभी आहें भरने वाले।
लाख कर ले कोशिश अजय तू
आदतें नहीं हैं तेरे सुधरने वाले।
-अजय प्रसाद
अपनी महबूबा को मुश्किल में डाल रहा हूँ
उसकी मोबाईल आजकल खंगाल रहा हूँ ।
क्या पता कि कुछ पता चल जाए मुझे यारों
क्यों मैं उसकी नज़रों में अब जंजाल रहा हूँ।
उसकी गली के कुत्ते भी मुझ पर भौंकते हैं
कभी जिस गली में जाकर मालामाल रहा हूँ।
जिसके निगाहें करम से था मैं बेहद अमीर
फिर अब किस वज़ह से हो मैं कंगाल रहा हूँ।
बेड़ा गर्क हो कम्बखत नये दौर में इश्क़ का
था कभी हठ्ठा क्ठ्ठा अब तो बस कंकाल रहा हूँ
-अजय प्रसाद
अतीत से निकल वर्तमान में आ
फ़िर ज़िंदगी के जंगे मैदान में आ।
कब तक रोएगा तू नाकामियों पर
जी चुका जमीं पे आसमान में आ ।
दूसरों पे तोहमत लगाने से पहले
जा झांक के अपने गिरेवान में आ।
वादा है चुकाऊँगा मोल जाँ दे कर
मुझसे इश्क़ करके,एहसान में आ ।
झूठ के पाँव नहीं होते,सच है मगर
मत किसी झांसे में बेइमान के आ ।
-अजय प्रसाद
साया-ए-मजबुरी में जो पले थे
लोग वही बेहद अच्छे भले थे ।
आपने जश्न मनाया जिस जगह
वहीं रातभर मेरे ख्वाब जले थे।
हुआ क्या हासिल है मत पूछिये
क्या सोंच के हमने चाल चले थे।
हो गए शिकार शिक़्स्त के यारों
सियासत के पैंतरे ही सड़े गले थे ।
छिड़क गए है नमक ज़्ख्मों पर
‘वो’जो मरहम लगाने निकले थे।
-अजय प्रसाद
इश्क़ में भी अब इंस्टालमेंट है
आशिक़ी में भी रिटायरर्मेंट है ।
कितने मच्यौर हुए लैला-मजनू
लीविंग रिलेशन अपार्टमेन्ट है ।
सस्ता उत्तम टिकाऊ प्यार का
अब तो अलग डिपार्टमेन्ट है ।
चेह्र पर हँसी औ दिल में खुन्नस
आजकल तो ये एडजस्टमेंट है ।
अंदाज़ा लगाता है तू तस्वीरों से
कितना गलत तेरा ये जजमेंट है ।
कर ले एन्जॉय जी भर आज ही
क्या पता कल मौत अर्जेन्ट है
-अजय प्रसाद
संवर जाती है
धूप जब बर्फ़ सी पिघल जाती है
मजदूरों के पसीने में ढल जाती है।
ठंड जब हद से गुजर जाती है
झोपड़ीयोंं में जाकर ठिठुर जाती है ।
बारिश जब भी गुस्से में आती है
कई गांवों और कस्बों में ठहर जाती है।
मौसम की मार झेलने में माहिरों
तुम्हारी वज़ह से तिजोरियां भर जाती है ।
ये कुदरत का कानून भी कमाल है
वक्त के साथ ज़िंदगी संवर जाती है
-अजय प्रसाद
‘वो’ जिनके नाम से शायरीयाँ सुनाते हो
क्या सचमुच तुम इतना प्यार जताते हो।
प्यार कभी शब्दों में वयां होता है क्या
फ़िर क्योंकर भला खुद पर इतराते हो।
तारीफ़ तन-बदन तक सीमित रहता है
तो रिश्ता रूह का है क्यों बतलाते हो ।
फिदा हो जाते हो उसकी अदाओं पर
खुबसूरती पे ही उसके तुम मर जाते हो।
हक़ीक़त है कि तुम्हें प्रेम हुआ ही नहीं
बस दैहिक आकर्षण में उलझ जाते हो ।
अव्यक्त प्रेम सर्बोत्तम है जान लो तुम
जिसे बिना अभिव्यक्ति के ही निभाते हो ।
-अजय प्रसाद