आज़ादी का अमृत महोत्सव
आज़ाद वतन की माटी अब इतनी खामोश क्यु हैं ?
आज़ादी में रहने की, क्या हमको कोई आदत ही नही
आज़ाद चमन है आज़ाद गगन है पवन भी है आज़ाद अब
डर दिल में, भय मन में और सच कहने की आदत ही नही ।।
आज़ादी का पावन पर्व क्यों सुना सुना लगता है ?
अपनी शासन में रहना और जीना दूभर लगता है
ऐसा ही होना था तो क्यो वतन आज़ाद लिया हमने ?
आज़ादी लेने की खातिर हर दिन जिया मरा हमने ।।
बंदिश में गर रहना है तो आज़ादी का मतलब क्या ?
बात बात पर रंजिश हैं तो आज़ादी का मतलब क्या ?
बोलने पर पाबंदी हो तो आज़ादी को फेल ही समझो
हर बातों पर गर्दिश हैं तो आज़ादी का मतलब क्या ।।
आज़ादी के नारों से अब भय सा लगने लगता है
इन नारो के साये में कोई हमको ठगने लगता है
छीन लिया आज़ादी सबकी आज़ादी के नारों से
गाकर गीत आज़ादी का घर अपना भरने लगता है ।।
©बिमल तिवारी “आत्मबोध”
देवरिया उत्तर प्रदेश