आहुति
आहुति
जीवन चक्र के अग्निकुंड संग, नित वेदी बनकर सजती हूं।
आहुति स्व उम्मीदों की,,,,,निस हवन में स्वयं को तजती हूं।
छूने सूरज- चांद-तारे बढ़,नीले अंंबर की चोटी चढ़ती हूं।
उम्मीदों पर छा जाते बादल,किस्मत से रोज़ ही लड़ती हूं।
निज जीवन को ललकार बनाकर, मैंअंगारों पर चलती हूं,
स्व रुकावटों को सार बनाकर,सफलता के मंत्र मैं पढ़ती हूं।
करती नव नित खुद को स्वाहा,आहुति बनकर जलती हूं,
सुन, निराशा के राख ढेर से,नव आशा ले, पुनः चलती हूं।
मंत्रों सम विचार गूंजते,विचलित-विस्मित इस अंतर्मन में
भाव मथे जाते यूं जैसे,था विष निकला सागर मंथन में।
जीवन रूपी हवन-यज्ञ में, नीलम हृदय में है कोलाहल
हवन मंत्र और ऋचाओं से,मिला नहीं आहुति का फल।
नीलम शर्मा