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16 May 2023 · 1 min read

“आहत है मन”

आहत है मन विश्व का,
बदलते देख स्वरूप को,
अभी वक्त है संभलने का,
देख भविष्य के विस्तृत रूप को।

क्षणिक है सबका,
अमूल्य जीवन की रेता,
उठ रही आस्था सबकी,
रामायण हो या गीता।

भ्रमित है मनु आजकल,
चुटकी में जीवन जीता,
सदा रहेगा बस यहां,
रामायण औ गीता।

जो इन्सानियत के ढांचे में,
शिष्टाचार नहीं सीखा,
बेकार है ऐसे मानव जीवन के,
विकास की रूप-रेखा।

धिक्कार है ऐसे मानव को,
जिसमे मानवता का अभाव है ,
पल रहे जिनके हिय में सदा,
नीचता का लगाव है ।

टिकता नहीं मान-सम्मान,
जिसके तन-मन में ,
स्वार्थ की पूजा होता है,
नित्य उनके आंगन में ।

ये विनाशकारी है पथ भ्रष्टता ,
मानव विकास जीवन का ,
बढ़ता जा रहा अंधकार ,
सबके भ्रमित मन का।।

राकेश चौरसिया

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