कविता- अफसोस
कितना आसान था कह देना
अब नहीं कोई वास्ता
अब नहीं एक रास्ता
ना ही होगी एक मंजिल
ना होगा अब कोई फासला।
कह कर आगे चल देना
उसे अच्छे से आता था
और एक उसका साथ
हां वही जो अब नहीं था
वही मुझे भाता था।
एक अफसोस रह गया था
ना वो था ना कोई आशा
था तो बस यही अफसोस
उसने मेरा साथ क्यों नहीं चाहा?
जिस डगर का वो राही था
उसका हमराही क्यों नहीं चाहा?
खैर, ये वो सवाल थे
जिनमें मुझे उलझा कर वो
चल दिया ऐसी राह
जो अब मिलनी नामुमकिन थी।