आस्था एवं धर्मांधता
किसी पारलौकिक शक्ति पर विश्वास रख उसे जीवन चक्र संचालक के रूप में स्वीकार करना आस्था कहलाता है । यह पारलौकिक शक्ति जिसे विभिन्न मान्यताओं द्वारा द्वैत एवं अद्वैत रूप में विभाजित कर स्वीकार किया जाता है आस्था की मूल भावना का स्वरूप बनता है।
धर्म एक सामाजिक व्यवस्था है जो समाज में मानव द्वारा अनुशासित जीवन निर्वाह करने के लिए प्रतिपादित की गई है। कालांतर में विभिन्न चिंतकों द्वारा प्रतिपादित धर्म के विभिन्न स्वरूपों का प्रादुर्भाव हुआ एवं तदनुसार विभिन्न क्षेत्रों में इनके अनुयायियों की संख्या में वृद्धि हुई।
विभिन्न धर्मों के मतावलंबियों की मान्यताओं में
अंतर के आधार पर उनकी विभिन्न शाखाओं की उत्पत्ति हुई।
विभिन्न धर्मों में धार्मिक वर्चस्व का संघर्ष पुरातन काल से चला आ रहा है। विभिन्न शासक अपने शासनकाल में उनके द्वारा अपनाए धर्म को अपनी प्रजा में अधिक से अधिक प्रचारित एवं प्रसारित करते रहे हैं ।
यहां तक की अपनी निरीह प्रजा को प्रलोभनों द्वारा एवं बलपूर्वक धर्मांतरण के लिए बाध्य करते रहे हैं।
अतः कालांतर में विभिन्न धर्मों में यह प्रतिस्पर्धा समाज में धर्मांधता का रूप ले चुकी है।
विभिन्न धर्मों में कुछ ऐसे तत्व हैं जो अपने धर्म को श्रेष्ठ मानते हुए दूसरे धर्म को हेय दृष्टि से देखते हैं।
और जनसाधारण में धर्मांधता के प्रचार एवं प्रसार का प्रमुख कारण बनते हैं ।
किसी भी प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली में प्रत्येक नागरिक को अपनी आस्था अनुसार धर्म अपनाने एवं पालन का मौलिक अधिकार है। जिस पर किसी भी तत्व द्वारा अंकुश लगाना अथवा बलपूर्वक या प्रलोभन देकर धर्मांतरण करना उसके मौलिक अधिकारों पर हनन है।
राजनैतिक वोट बैंक नीति स्वार्थ के चलते किसी धर्म विशेष पर टिप्पणी कर भड़काऊ भाषण देकर उस धर्म के विरुद्ध जनता को उकसाना धार्मिक भावनाओं एवं आस्थाओं पर चोट पहुंचाना है।
जो एक जघन्य अपराध है।
वर्तमान में जाति एवं धर्म को राजनैतिक स्वार्थ पूर्ति का प्रमुख साधन मान लिया गया है और जनता की जातिगत एवं धार्मिक भावनाओं को भड़का कर राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति सुनिश्चित की जाती है। यह जनसाधारण की धार्मिक आस्था एवं लोकतंत्र पर विश्वास पर कुठाराघात है।
धार्मिक आस्था एक व्यक्तिगत विषय है। किसी भी प्रजातंत्र में हर किसी व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए और किसी अन्य व्यक्ति को उसकी इस आस्था में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है। यदि उसके आस्था पर चोट पहुंचाई जाती है तो यह उसके मौलिक अधिकारों का हनन है।
धर्मांधता कुत्सित मंतव्य युक्त सामूहिक मानसिकता है। जिसके प्रसार एवं प्रचार पर प्रतिबंध होना आवश्यक है। अन्यथा देश में धार्मिक एवं सांप्रदायिक सहअस्तित्व की भावना क्षीण होकर देश की अखंडता प्रश्नवाचक चिन्ह बनकर रह जाएगी।