Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
26 Jul 2016 · 12 min read

आस्तित्व —— कहानी — निर्मला कपिला

आस्तित्व

कागज़ का एक टुकडा क्या इतना स़क्षम हो सकता है कि एक पल में किसी के जीवन भर की आस्था को खत्म कर दे1मेरे सामने पडे कागज़् की काली पगडँडियों से उठता धुआँ सा मेरे वजूद को अपने अन्धकार मे समेटे जा रहा था1 क्या नन्द ऐसा भी कर सकते हैं? मुझ से पूछे बिना अपनी वसीयत कर दी1 सब कुछ दो बडे बेटों के नाम कर दिया 1 अपने लिये मुझे रंज ना था, मैं जमीन जायदाद क्या करूँगी 1मेरी जायदाद तो नन्द,उनका प्यार और विश्वास था 1मगर उन्होंने तो मेरी ममता का ही बंटवारा कर दिया 1 उनके मन मे तीसरे बेटे के लिये लाख नाराज़गी सही पर एक बार माँ की ममता से तो पूछते1–काश मेरे जीते जी ये परदा ही रहता मेरे बाद चाहे कुछ भी करते1—बुरा हो उस पल का जब इनकी अलमारी में मैं राशन कार्ड ढुढने लगी थी1तभी मेरी नजर इनकी अलमारी मे रखी एक फाईल पर पडी1उत्सुकता वश कवर पलटा तो देखते ही जैसे आसमान से गिरी1 अगर मैं उनकी अर्धांगिनी थी तो जमीन जायदाद में मेरा भी बराबर हक था1 मन क्षोभ और पीडा से भर गया इस लिये नहीं कि मुझे कुछ नहीं दिया बल्कि इस लिये कि उन्होंने मुझे केवल घर चलाने वली एक औरत ही समझा अपनी अर्धांगिनी नहीं। यही तो इस समाज की विडंबना रही है1 तभी आज औरत आत्मनिर्भर बनने के लिये छटपटा रही है। मुझे आज उन बेटों पर आश्रित कर दिया जो मुझ पर 10 रुपये खर्च करने के लिये भी अपनी पत्नियौ क मुँह ताका करते हैं

भारी मन से उठी,ेअपने कमरे मे जा कर लेट गयी1 आज ये कमरा भी मुझे अपना नहीं लग रहा था1कमरे की दिवारें मुझे अपने उपर हंसती प्रतीत हो रही थी1छत पर लगे पंखे कि तरह दिमाग घूमने लगा1 30 वर्श पीछे लौत जाती हूं

“कमला,रमा के लिये एक लडका देखा है1 लडके के माँ-बाप नहीं हैं1मामा ने पाला पोसा है1जे.ई. के पद पर लग है1माँ-बाप की बनी कोठी है कुछ जमीन भी है1कोई ऐब नहीं है1लडका देख लो अगर पसंद हो तो बात पक्की कर लेते हैं”1 पिता जी कितने उत्साहित थे1

माँ को भी रिश्ता पसंद आगया 1मेरी और नंद की शादी धूम धाम से हो गयी1 हम दोनो बहुत खुश थे1

“रमा तुम्हें पा कर मैं धन्य हो गया मुझे तुम जैसी सुशील लड्की मिली है1तुमने मेरे अकांगी जीवन को खुशियों से भर दिया1” नंद अक्सर कहते1 खुशियों का ये दौर चलता रहा1 हम मे कभी लडाई झगडा नही हुआ1सभी लोग हमारे प्यार औरेक दूसरे पर ऐतबार की प्रशंसा करते1

देखते देखते तीन बेटे हो गये1 फिर नंद उनकी पढाई और मै घर के काम काज मे व्यस्त हो गये1

नंद को दफ्तर का काम भी बहुत रहता था बडे दोनो बेटों को वो खुद ही पढाते थे लेकिन सब से छोटे बेटे के लिये उन्हें समय नही मिलता था छोटा वैसे भी शरारती था ,लाड प्यार मे कोइ उसे कुछ कहता भी नहीं था ।स्कूल मे भी उसकी शरारतों की शिकायत आती रहती थी1उसके लिये ट्यूशन रखी थी,मगर आज कल ट्यूशन भी नाम की है1 कभी कभी नंद जब उसे पढाने बैठते तो देखते कि वो बहुत पीछे चल रहा है उसका ध्यान भी शरारतों मे लग जाता तो नंद को गुसा आ जाता और उसकी पिटाई हो जाती1 धीरे धीरे नंद का स्व्भाव भी चिड्चिदा सा हो गया। जब उसे पढाते तो और भी गुस्सा आता हर दम उसे कोसना उनका रोज़ का काम हो गया।

दोनो बदे भाई पढाई मे तेज थे क्यों कि उन्हें पहले से ही नंद खुद पढाते थे1 दोनो बडे डाक्टर् बन गये मगर छोटा मकैनिकल का डिपलोमा ही कर पाया1 वो घूमने फिरने का शौकीन तो था ही, खर्चीला भी बहुत था नंद अक्सर उससे नाराज ही रहते1कई कई दिन उससे बात भी नहीं करते थे। मैं कई बार समझाती कि पाँचो उंगलियाँ बराबर नही होती1 जवान बच्चों को हरदम कोसना ठीक नहीं तो मुझे झट से कह देते “ये तुम्हारे लाड प्यार का नतीजा है1” मुझे दुख होता कि जो अच्छा हो गया वो इनका जो बुरा हो गया वो मेर? औरत का काम तो किसी गिनती मे नहीं आता1इस तरह छोटे के कारण हम दोनो मे कई बार तकरार हो जाती1

दोनो बडे बेटों की शादी अच्छे घरों मे डाक्टर् लडकियों से हो गयी1नंद बडे गर्व से सब के सामने उन दोनो की प्रशंसा करते मगर साथ ही छोटे को भी कोस देते1धीरे धीरे दोनो में दूरि बढ गयी1 जब छोटे के विवाह की बारी आयी तो उसने अपनी पसंद की लडकी से शादी करने की जिद की मगर नंद सोचते थे कि उसका विवाह किसी बडे घर मे हो ताकि पहले समधियों मे और बिरादरी मे नाक ऊँची् रहे। छोटा जिस लडकी से शादी करना चाहता था उसका बाप नहीं था तीन बहिन भाईयों को मां ने बडी मुश्किल से अपने पाँव पर खडा किया था।जब नंद नहीं माने तो उसने कोर्ट मैरिज कर ली1 इससे खफा हो कर नंद ने उसे घर से निकल जाने का हुकम सुना दिया1

अब नंद पहले जैसे भावुक इन्सान नही थे1 वो अब अपनी प्रतिष्ठा के प्रती सचेत हो गये थे। प्यार व्यार उनके लिये कोई मायने नहीं रखता था 1छोटा उसी दिन घर छोड कर चला गया वो कभी कभी अपनी पत्नी के साथ मुझे मिलने आ जाता था1 नंद तो उन्हें बुलाते ही नहीं थे1 उन्हें मेरा भी उन से मिलना गवारा नहि था /मगर माँ की ममता बेटे की अमीरी गरीबी नही देखती ,बेटा बुरा भी हो तो भी उसे नहीं छोड सकती।

कहते हैँ बच्चे जीवन की वो कडी है जो माँ बाप को बान्धे रखती है पर यहाँ तो सब उल्टा हो गया था।हमारे जिस प्यार की लोग मसाल देते थे वो बिखर गया था मैं भी रिश्तों मे बंट गयी थी आज इस वसीयत ने मेरा अस्तित्व ही समाप्त कर दिया था—

“मालकिन खाना खा लो” नौकर की आवाज से मेरी तंद्रा टूटीऔर अतीत से बाहर आई\

*मुझे भूख नहीं है1बकी सब को खिला दे”कह कर मै उठ कर बैठ गयी
नंद बाहर गये हुये थे1बहुयों बेटों के पास समय नही था कि मुझे पूछते कि खाना क्यों नही खाया1 नंद ने जो प्लाट बडे बेटौं के नाम किये थे उन पर उनकी कोठियां बन रही थी जिसकी निगरानी के लिये नंद ही जाते थे1इनका विचार था कि घर बन जाये हम सब लोग वहीं चले जायेंगे1
नींद नही आ रही थी लेटी रही, मैने सोच लिया था कि मैं अपने स्वाभिमान के साथ ही जीऊँगी मै नंद् के घर मे एक अवांछित सदस्य बन कर नहीं बल्कि उनक गृह्स्वामिनी बन् कर ही रह सकती थी1इस लिये मैने अपना रास्ता तलाश लिया था1
सुबह सभी अपने अपने काम पर जा चुके थे1मैं भी तैयार हो कर शिवालिक बोर्डिंग स्कूल के लिये निकल पडी1ये स्कूल मेरी सहेली के पती मि.वर्मा का था1मैं सीधी उनके सामने जा खडी हुई1
‘”नमस्ते भाई सहिब”
नमस्ते भाभीजी,अप ?यहाँ! कैसी हैं आप? बैठिये 1 वो हैरान हो कर खडे होते हुये बोले1
कुछ दिन पहलेआशा बता रही थीकि आपके स्कूल को एक वार्डन की जरूरत है1क्या मिल गई?”मैने बैठते हुये पूछा
“नहीं अभी तो नही मिली आप ही बताईये क्या है कोई नज़र मे1”
“तो फिर आप मेरे नाम का नियुक्ती पत्र तैयार करवाईये1”
“भाभीजी ये आप क्या कह रही हैं1आप वार्डन की नौकरी करेंगी?”उन्होंने हैरान होते हुये पूछा1
हाँागर आपको मेरी क्षमता पर भरोसा है तो1”
“क्या नंद इसके लिये मान गये हैांअपको तो पता है वार्डन को तो 24 घन्टे हास्टल मे रहना पडता हैआप नंद को छोड कर कैसे रहेंगी?”
अभी ये सब मत पूछिये अगर आप मुझे इस काबिल मानते हैं तो नौकरी दे दीजिये1बाकी बातें मैं आपको बाद में बता दूँगी:।
“आप पर अविश्वास का तो प्रश्न ही नही उठता आपकी काबलियत के तो हम पहले ही कायल हैं1ऐसा करें आप शाम को घर आ जायें आशा भी होगी1अपसे मिल कर खुश होगी अगर जरूरी हुआ तो आपको वहीं नियुक्ती पत्र मिल जायेगा।”
*ठीक है मगर अभी नंद से कुछ मत कहियेगा1″कहते हुये मै बाहर आ गयी
घर पहुँची एक अटैची मे अपने कपडे और जरूरी समान डाला और पत्र लिखने बैठ गयी–
नंदजी,
अंतिम नमस्कार्1
आज तक हमे एक दूसरे से क्भी कुछ कहने सुनने की जरूरत नहीं पडी1 आज शायद मैं कहना भी चाहूँ तो आपके रुबरु कह नहीं पाऊँगी1 आज आपकी अलमारी में झांकने की गलती कर बैठी1अपको कभी गलत पाऊँगी सोचा भी नहीं था आज मेरे स्वाभिमान को आपने चोट पहुँचाई है1जो इन्सान छोटी से छोटी बात भी मुझ से पूछ कर किया करता था वो आज जिन्दगी के अहम फैसले भी अकेले मुझ से छुपा कर लेने लगा है1मुझे लगता है कि उसे अब मेरी जरुरत नहीं है1आज ये भी लगा है कि शादी से पहले आप अकेले थे, एक जरुरत मंद आदमी थे जिन्हें घर बसाने के लिये सिर्फ एक औरत की जरूरत थी, अर्धांगिनी की नहीं1 ठीक है मैने आपका घर बसा दिया है1पर् आज मै जो एक भरे पूरे परिवार से आई थी, आपके घर में अकेली पड गयी हूँ1तीस वर्ष आपने जो रोटी कपडा और छत दी उसके लिये आभारी हूँ1किसी का विश्वास खो कर उसके घर मे अश्रित हो कर रहना मेरे स्वाभिमान को गवारा नही1मुझे वापिस बुलाने मत आईयेगा,मै अब वापिस नहीं आऊँगी1 अकारण आपका अपमान हो मुझ से अवमानना हो मुझे अच्छा नहीं लगेगा1इसे मेरी धृ्ष्ट्ता मत समझियेगा1ये मेरे वजूद और आत्मसम्मान क प्रश्न है1खुश रहियेगा अपने अहं अपनी धन संपत्ती और अपने बच्चों के साथ्1
जो कभी आपकी थी,
रमा1

मैने ये खत और वसीयत वाले कागज़ एक लिफाफे मे डाले और लिफाफा इनके बैड पर रख दिया1अपना अटैची उठाया और नौकर से ये कह कर निकल गयी कि जरूरी काम से जा रही हूँ1मुझे पता था कि नंद एक दो घन्टे मे आने वाले हैं फिर नहीं निकल पाऊँगी1 आटो ले कर आशा के घर निकल पडी
रास्ते भर ये सोचती रही कि क्या घर मे औरत की कोई अहमियत नही कि घर और बच्चों के बारे मे फैसला लेते हुये उसकी राय भी ली जाये ——–

आशा के घर पहुँची1 मुझे देखते ही आशा ने सवालों की झडी लगा दी

“अखिर ऐसा क्या हो गया जो तुम्हें ऐसी नौकरी की जरूरत पड गयी1नंद जी कहाँ हैं?”

मुँह से कुछ ना बोल सकी,बस आँखें बरस रही थी महसूस् हुआ कि सब कुछ खत्म हो गया है1मगर मेरे अन्दर की औरत का स्वाभिमान मुझे जीने की प्रेरणा दे रहा था1आशा ने पानी का गिलास पिलाया,कुछ संभली अब तक वर्मा जी भी आ चुके थे1 मैने उन्हें पूरी बात बताई1 सुन कर वो भी सन्न रह गये

“देखो आशा ये प्रश्न सिर्फ मेरे आत्म सम्मान का नहीं है1बल्कि एक औरत के अस्तित्व का है क्या औरत् सिर्फ आदमी के भोगने की वस्तु है?क्या घर्, परिवार्,बच्चो पर् और घर से सम्बंधित फैसलों पर उसका कोई अधिकार नही है ! अगर आप लोग मेरी बात से सहमत हैं तो कृ्प्या मुझ से और कुछ ना पूछें। अगर आप नौकरी दे सकते हैं तो ठीक है वर्ना कही और देख लूँगी1

“नहीं नहीं भाभीजी आप ऐस क्यों सोचती हैं? नौकरी क्या ये स्कूल ही आपका है1मगर मैं चाहता था एक बार नंद से इस बारे में बात तो करनी चाहिये”

*नहीं आप ऐसा कुछ नहीं करेंगे1″

” खैर आपकी नौकरी पक्की है1″

दो तीन दिन में ही होस्टल वार्डन वाला घर मुझे सजा कर दे दिया गया 1वर्माजी ने फिर भी नंद को सब कुछ बता दिया था उनका फोन आया था1मुझे ही दोशी ठहरा रहे थे कि छोटे को तुम ने ही बिगाडा है अगर तुम चाह्ती हो कि कुछ तुम्हारे नाम कर दूँ ‘तो कर सकता हूँ मगर बाद में ये दोनो बडे बेटों का होगा1मैने बिना जवाब दिये फोन काट दिया 1था वो अपने गरूर मे मेरे दिल की बात समझ ही नही पाये थे1मैं तो चाहती थी कि जो चोट उन्होंने मुझे पहुँचाई है उसे समझें1

बडे बेटे भी एक बार आये थे मगर औपचारिकता के लिये शायद उन्हें डर था कि माँ ने जिद की तो जमीन में से छोटे को हिस्सा देना पडेगा1 वर्मा जी ने नंद को समझाने की और मुझे मनाने की बहुत कोशिश की मगर नंद अपने फैसले पर अडे रहे। बडे बेटे भी एक बार आये फिर चुपी साध गय।

लगभग छ: महीने हो गये थे मुझे यहाँ आये हुये1घर से नाता टूट चुका था1बच्चों के बीच काफी व्यस्त रह्ती1फिर भी घर बच्चों की याद आती छोटे को तो शायद किसी ने बताया भी ना हो1नंद की भी बहुत याद आती–पता नहीं कोई उनका ध्यान रखता भी है या नहीं वर्मा जी ने कल बताया था कि दोनो कोठियाँ बन गयी हैं1नंद दो माह वहाँ रहे अब पुराने घर मे लौट आये हैं1ये भी कहा कि भाभी अब छोडिये गुस्सा नंद के पास चले जाईये1

अब औरत का मन–मुझे चिन्ता खाये जा रही थी-ेअकेले कैसे रहते होंगे–ठीक से खाते भी होंगे या नहीं–बेटों के पास क्यों नहीं रहते–शायद उनका व्यवहार बदल गया हो–मन पिघलने लगता मगर तभी वो कागज़ का टुकडा नाचते हुये आँखों के सामने आ जाता–मन फिर क्षोभ से भर जाता

चाय का कप ले कर लान मे आ बैठी1बच्चे लान मे खेल रहे थे मगर मेरा मन जाने क्यों उदास था छोटे की भी याद आ रही थी–चाय पीते लगा पीछे कोई है मुड कर देखा तो छोटा बेटा और बहू खडे थे1दोनो ने पाँव छूये1दोनो को गले लगाते ही आँखें बरसने लगी–

“माँ इतना कुछ हो गया मुझे खबर तक नही दी1क्या आपने भी मुझे मरा हुया समझ लिया था1″ बेटे का शिकवा जायज़ था1

*नहीं बेटा मै तुम्हें न्याय नहीं दिला पाई तो तेरे सामने क्या मुँह ले कर जाती1फिर ये लडाई तो मेरी अपनी थी1”

“माँ मैं गरीब जरूर हूँ मगर दिल से इतना भी गरीब नहीं कि माँ के दिल को ना जान सकूँ1मैं कई बार घर गया मगर घर बंद मिला मैने सोचा आप बडे भईया के यहाँ चली गयी हैं1पिता जी के डर से वहाँ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया

*अच्छा चलो बातें बाद मे होंगी पहले आप तैयार हो कर हमारे साथ चलो”

“मगर कहाँ?”

माँ अगर आपको मुझ पर विश्वास हैतो! ये समझो कि आपका बेटा आपके स्वाभिमान को ठेस नही लगने देगा1ना आपकी मर्जी के बिना कहीं लेकर जाऊँगा1बस अब कोई सवाल नहीं”

“पर् बहू पहली बार घर आई है कुछ तो इसकी आवभगत कर लूँ1” मन मे डर स लग रहा था कहीं नंद बिमार तो नहीं –कहीं कोइ बुरी खबर तो नहीं–या बेटा अपने घर तो नहीं ले जाना चाहता1मगर बेटे को इनकार भी नहीं कर सकी

“माँ अब आवभगत का समय नहीं है आप जलदी चलें”

अन्दर ही अन्दर मै और घबरा गयी1मन किया उड कर नंद के पास पहुँच जाऊँ वो ठीक तो हैं!मैं जल्दी से तयार हुई घर को ताला लगाया और आया से कह कर बेटे के साथ चल पडी

चलते चलते बेटा बोला-“माँ अगर जीवन में जाने अनजाने किसी से कोई गलती हो जाये तो क्या वो माफी का हकदार नहीं रहता? मान लो मैं गलती करता हूँ तो क्या आप मुझे माफ नहीं करेंगी?”

“क्यों नहीं बेटा अगर गलती करने वाला अपनी गलती मानता है तो माफ कर देना चाहिये1क्षमा तो सब से बडा दान है1बात ्रते करते हम गेट के पास पहूँच चुके थे

“तो फिर मैं क्षमा का हकदार क्यों नहीं1क्या मुझे क्षमा करोगी?”—-!नंद ये तो नंद की आवाज है—एक दम दिल धडका—गेट की तरफ देखा तो गेट के बाहर खडी गाडी का दरवाजा खोल कर नंद बाहर निकले और मेरे सामने आ खडे हुये1उनके पीछे–पीछे वर्माजी और आशा थे1

“रमा आज मैं एक औरत को नहीं, अपनी अर्धांगिनी को लेने आया हूं1हमारे बीच की टूटी हुई कडियों को जोडने आया हूँ1तुम्हारा स्वाभिमान लौटाने आया हूँ1उमीद है आज मुझे निराश नहीं करोगी1शायद तुम्हारे कहने से मै अपनी गलती का अह्सास ना कर पाता मगर तुम्हारे जाने के बाद मै तुम्हारे वजूद को समझ पाया हूँ1मैं तुम्हे नज़रंदाज कर जिस मृ्गतृ्ष्णा के पीछे भागने लग था वो झूठी थी इस का पता तुम्हारे जाने के बाद जान पाया1जिसे मैं खोटा सिक्का समझता था उसने ही मुझे सहारा दिया है दो दिन पहले ये ना आया होता तो शायद तुम मुझे आज ना देख पाती1बडों के हाथ जमीन जायदाद लगते ही मुझे नज़र अंदाज करना शुरू कर दिया1मैं वापिस अपने पुराने घर आ गया वहाँ तुम बिन कैसे रह रहा था ये मैं ही जानता हूँ1तभी दो दिन पहले छोटा तुम्हें मिलने के लिये आया1 मैं बुखार से तप रहा था1 नौकर भी छुटी पर था तो इसने मुझे सम्भाला1 इसे मैने सब कुछ सच बता दिया1मैं शर्म् के मारे तुम्हारे सामने नहीं आ रहा था लेकिन वर्माजी और छोटे ने मेरी मुश्किल आसान कर दी1 चलो मेरे साथ”कहते हुये नंद ने मेरे हाथ को जोर से पकड लिया—मेरी आँखें भी सावन भादों सी बह रही थी और उन आँसूओं मे बह ्रहे थे वो गिले शिकवे जो जाने अनजाने रिश्तों के बीच आ जाते “हैं। अपने जीवन की कडियों से बंधी मै नंद का हाथ स्वाभिमान से पकड कर अपने घर जा रही थी1– समाप्त
लेखिका निर्मला कपिला

Language: Hindi
3 Comments · 705 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
उम्मीद का दिया
उम्मीद का दिया
Dr. Rajeev Jain
"समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग बदलना चाहते हैं,
Sonam Puneet Dubey
*** कुछ पल अपनों के साथ....! ***
*** कुछ पल अपनों के साथ....! ***
VEDANTA PATEL
कलरव करते भोर में,
कलरव करते भोर में,
sushil sarna
👌दावा या धावा?👌
👌दावा या धावा?👌
*प्रणय*
दरअसल Google शब्द का अवतरण आयुर्वेद के Guggulu शब्द से हुआ ह
दरअसल Google शब्द का अवतरण आयुर्वेद के Guggulu शब्द से हुआ ह
Anand Kumar
मोहब्बत जब होगी
मोहब्बत जब होगी
Surinder blackpen
आओ जमीन की बातें कर लें।
आओ जमीन की बातें कर लें।
रामनाथ साहू 'ननकी' (छ.ग.)
धन, दौलत, यशगान में, समझा जिसे अमीर।
धन, दौलत, यशगान में, समझा जिसे अमीर।
Suryakant Dwivedi
समय को व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए, कुछ समय शोध में और कुछ समय
समय को व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए, कुछ समय शोध में और कुछ समय
Ravikesh Jha
"कु-समय"
Dr. Kishan tandon kranti
कहाँ चल दिये तुम, अकेला छोड़कर
कहाँ चल दिये तुम, अकेला छोड़कर
gurudeenverma198
कैमिकल वाले रंगों से तो,पड़े रंग में भंग।
कैमिकल वाले रंगों से तो,पड़े रंग में भंग।
Neelam Sharma
प्रहरी नित जागता है
प्रहरी नित जागता है
हिमांशु बडोनी (दयानिधि)
* मन में उभरे हुए हर सवाल जवाब और कही भी नही,,
* मन में उभरे हुए हर सवाल जवाब और कही भी नही,,
Vicky Purohit
अजीब मानसिक दौर है
अजीब मानसिक दौर है
पूर्वार्थ
एक कुंडलिया
एक कुंडलिया
SHAMA PARVEEN
फ़क़्त ज़हनी तवाज़ुन से निकलती हैं तदबीरें,
फ़क़्त ज़हनी तवाज़ुन से निकलती हैं तदबीरें,
Dr fauzia Naseem shad
कोई मेरा है कहीं
कोई मेरा है कहीं
Chitra Bisht
महिलाएं जितना तेजी से रो सकती है उतना ही तेजी से अपने भावनाओ
महिलाएं जितना तेजी से रो सकती है उतना ही तेजी से अपने भावनाओ
Rj Anand Prajapati
बहुत कष्ट है ज़िन्दगी में
बहुत कष्ट है ज़िन्दगी में
Santosh Shrivastava
तेरे कहने का अंदाज ये आवाज दे जाती है ।
तेरे कहने का अंदाज ये आवाज दे जाती है ।
Diwakar Mahto
*****देव प्रबोधिनी*****
*****देव प्रबोधिनी*****
Kavita Chouhan
*सबसे महॅंगा इस समय, छपवाने का काम (कुंडलिया)*
*सबसे महॅंगा इस समय, छपवाने का काम (कुंडलिया)*
Ravi Prakash
23/152.*छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
23/152.*छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
लावारिस
लावारिस
Dr. Ramesh Kumar Nirmesh
इच्छा शक्ति अगर थोड़ी सी भी हो तो निश्चित
इच्छा शक्ति अगर थोड़ी सी भी हो तो निश्चित
Paras Nath Jha
खुश मिजाज़ रहना सीख लो,
खुश मिजाज़ रहना सीख लो,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
मनुस्मृति का, राज रहा,
मनुस्मृति का, राज रहा,
SPK Sachin Lodhi
* कुछ पता चलता नहीं *
* कुछ पता चलता नहीं *
surenderpal vaidya
Loading...