आसिफा या राजनीति
औरत
एक माँ भी है ,एक जननी भी ।
पत्नी भी है , एक बहन भी ।
राजनीति
जिसका न कोई लिंग है ,न धर्म ही ।
जिसका न रूप है ,न व्यक्तिव ही ।
समाज
जो बंट गया है जाति और विवाद में ,
व्यर्थ के अहम और सिर्फ उन्माद में ।
आसिफा
क्या एक लड़की होना ही गुनाह था मेरा
या धर्म को बांटकर फसाद करना लक्ष्य था
अभी तो खेलने की उम्र थी मेरी ,
क्यों हवस से भरी वहशी नजर थी तेरी ।
परी होती हैं बेटियां तुम्हारी ,
फिर क्यों मुझ पर नजर थी तेरी।
क्यों न लाज आयी तनिक भी ,
क्या माँ से बड़ी राजनीति थी तेरी ।
न छोड़ी तुमने मेरी जीने की वजह ,
इंसान नहीं राक्षस जात थी तेरी ।
हवस और दरिंदगी की मैं मिसाल हूँ,
देश की बेटी और जिंदा सवाल हूँ तेरी ।
जीत जाओगे शायद मेरी लाश पर ,
राजनीति की रोटियां सेककर ।
संभल जाओ आज भी ऐ लड़ने वालो
कल की बाजी पर बिछी है बिसात तेरी ।
रूह कांप जाती है आज ये सोचकर ,
पूजते हो जिन मंदिरों में देवी मां को ।
क्यों वही अय्यासी का अड्डा बना दिया ,
दबाकर एक चीख को राख बना दिया।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़