आश्रम
उस दिन मुझे एक संत के आश्रम जाने का सौभाग्य मिला। प्रातः 4:00 बजे से 5:00 बजे तक योग का कार्यक्रम था, उसके पश्चात 9:00 बजे से सत्संग का कार्यक्रम चालू हुआ, और 11:30 बजे समाप्त हुआ प्रवचन आदि के उपरांत प्रश्नोत्तर प्रक्रिया समाप्त होने पर कार्यक्रम का समापन हुआ। इसके पश्चात कुछ विशिष्ट लोगों से मिलने का महाराज जी का प्रोग्राम था। मैंने वहां सेवकों से मनुहार कर महाराज जी से मिलने का समय ले लिया। मैंने अपने महाराज जी से संवाद मे यह अनुभव किया कि महाराज जी प्रश्नों के सटीक उत्तर न देते हुए क्लिष्ट शब्दों के जाल में उलझे हुए उत्तर दे रहे थे।
कुछ विवादास्पद प्रश्नों का उत्तर ना देते हुए टाल रहे थे। इस प्रकार कई प्रश्न समायाभाव के कारण अनुत्तरित रहे। अतः मैंने यह अनुभव किया महाराज जी उन प्रश्नों के उत्तर टाल दिया करते थे जो उन्हें पसंद नहीं थे , या जो तर्कों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते थे।
उन्होंने अंधभक्तों एवं सेवकों की बड़ी फौज पाल रखी थी जो उनकी महिमामंडन के प्रचार एवं प्रसार में संलग्न थी। बहुत से नेतागण भी उनके अंधभक्त थे क्योंकि एक बड़ी अंध भक्तों की संख्या राजनीतिक समीकरण बदल सकती थी। राजनेताओं की काली कमाई के निवेश में कहीं ना कहीं इस प्रकार की समाजसेवी संस्थाओं का हाथ अवश्य था। जिनके माध्यम से भ्रष्ट राजनेता अपनी काली कमाई को समाज सेवा के नाम से सफेद बना रहे थे।
महाराज जी का इतिहास हम देखें तो पता चलता है कि बचपन से ही शरारती थे , पढ़ने लिखने में मन नहीं लगता था। उन्होंने अपने नेतृत्व में शरारती लड़कों की एक फौज तैयार कर रखी थी । जो आए दिन अपने वर्चस्व के लिए झगड़े फसाद किया करते थे।
मैट्रिक में फेल हो जाने के कारण पिताजी के डांटने पर गांव छोड़कर शहर अपने मामा जी के यहां रहने आ गये ।
मामा जी की परचून की दुकान थी और उन्होंने उसे दुकान में मदद करने के लिए रख लिया।
परंतु महाराज जी को दुकान में बैठकर व्यवसाय करना पसंद नहीं आया। वे स्वच्छंद प्राणी की तरह विचरण करना चाहते थे , उन्हें बंधन पसंद नहीं था।
अतः उन्होंने मामा जी के यहां काम छोड़ दिया। और एक सिनेमा हॉल में गेट कीपर का काम करने लगे।
नई फिल्म आने पर सिनेमा टिकट ब्लैक से भी अच्छी आमदनी हो जाती थी और इधर इनकी दोस्ती कुछ असामाजिक तत्वों से भी हो गई और धीरे-धीरे ये उनके मुखिया बन गए।
फिर इन्होंने गेटकीपर की नौकरी छोड़कर दुकानदारों से हफ्ता वसूली का धंधा बना लिया ।
दुकानदारों से मार पिटाई करने पर कई जेल की हवा भी खानी पड़ी।
एक बार इनके प्रतिद्वंदी रफीक से झगड़े में उसके भाई सुलेमान को गंभीर चोटें आईं और इनके खिलाफ हत्या के प्रयास का गैर जमानती गिरफ्तारी वारंट निकल गया।
गिरफ्तारी से बचने के लिए ये शहर से फरार होकर गांव में आकर रहने लगे। तभी इनकी मुलाकात एक साधु से हुई और उसकी सेवा करके इनको संत बनकर आश्रम चलाने का धंधा अच्छा लगा।
और इन्होंने वही जंगल में एक कुटिया बनाकर साधु की वेशभूषा धारण कर रहना चालू कर दिया। गांव के कुछ आवारा लड़कों को इन्होंने अपना शिष्य बना धीरे धीरे आस पास के गांवों में सिद्ध पुरुष कहके अपना प्रचार चालू कर दिया। धीरे धीरे इनके अंध भक्तों की संख्या बढ़ती गई।
तीन गांव पंचायत के मुखिया ठाकुर तेजप्रतापसिंह को अपने विश्वास में लेकर इन्होंने पंचायत से आश्रम के लिए आवंटित करवा ली। और कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों को न्यासी बनाकर आश्रम न्यास की स्थापना की , जिसमें उन्हें भरपूर दान एवं वित्तीय सहयोग भी मिला।
एक शुभ दिवस पर आश्रम का शिलान्यास किया गया एवं आश्रम का निर्माण संभव हो सका।
धीरे धीरे महाराज जी की ख्याति बढ़ती गई और प्रसिद्धि का परचम लहराने लगा।
इस प्रकार तथाकथित महाराज जी एवं आश्रम इत्यादि का प्रचार एवं प्रसार आध्यात्मिक केंद्र के रूप में हमारे देश में हो रहा है।
जबकि इस प्रकार के संगठित न्यासों का अध्यात्मिकता , आत्म शुद्धि , एवं आत्मिक शांति इत्यादि प्रयोजनों से कोई लेना देना नहीं है । इस प्रकार के आश्रम कुत्सित मंतव्य युक्त धनोपार्जन के केंद्र बन गए हैं।
इसके अतिरिक्त इस प्रकार के आश्रमों का असामाजिक गतिविधियों में भी संलग्न होना संज्ञान में आया है।
अतः यह आवश्यक है कि हम इस प्रकार के आश्रमों के प्रति आस्था से प्रेरित अंधश्रृद्धा मे न पड़कर विवेक की कसौटी पर प्रज्ञाशील निर्णय लें।
अध्यात्म के नाम पर उन्मुक्त स्वच्छंद जीवन , पारिवारिक दायित्वों के निर्वाह से स्वतंत्रता , एवं सामाजिक बंधनों से मुक्ति की परिकल्पना एक छलावा है।
आत्म शुद्धि , आत्मशांति एवं आध्यात्मिक अनुभूति, ये समस्त मनुष्य के अंतर्निहित ही हैं।
केवल उन्हें जागृत करने के लिए आत्ममंथन एवं साधना की आवश्यकता है।