आश्चर्य है!
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जब कविता सोचता मन और लिखता हूँ मैं।
आश्चर्य अपने को ही खुद को बेचता हूँ मैं।
जंगल की पीड़ा बताता हूँ,उसका हाल दिखाता हूँ मैं।
रोज अपने पलंग के लिए एक पेड़ कटवाता हूँ मैं।
कोई अपनी संस्कृति के लिए होता है उठ खड़ा।
असभ्य हो तुम, कह कर,कहते हैं रह चुप पड़ा।
नदी के सूख जाने का दुख रो-रोकर तुम्हें जताता हूँ मैं।
रोज एक तालाब को पाटकर नई अट्टालिका बनाता हूँ मैं।
खगों के लुप्त हो रही प्रजाति का शोक मनाता हूँ मैं।
कार्बन जलाकर हद से ज्यादा प्रदूषण फैलाता हूँ मैं।
विकास का नाम है जंगलों को आग लगाता हूँ मैं।
रोज एक नया इंद्रप्रस्थ तुम्हारे लिए बसाता हूँ मैं।
तेरे दु:खों से विचलित हो एक ‘गौतम’भगाता हूँ मैं।
अहिंसा परमोधर्म: कहता व मार-काट मचाता हूँ मैं।
अधिकार के लिए लड़ने का तुम्हें पाठ पढ़ता हूँ मैं।
लड़ने प्रस्तुत होने पर किन्तु,नक्सली बताता हूँ मैं।
वस्त्र बुनना, सभ्यता के तौर तरीके सिखाता हूँ मैं।
तुम्हारे देह पर मोहित रोज निर्वस्त्र बनाता हूँ मैं।
आदिम सोच से उबरने आधुनिक रोज बनाता हूँ मैं।
अतीत ढूँढकर उसपर मुग्ध होना और सिखाता हूँ मैं।
तुम्हें आध्यात्मिक बनाने दर्शनशास्त्र पढ़ाता हूँ मैं।
ईश्वर के नाम पर लड़-मरने रोज उकसाता हूँ मैं।
मेरी भाषा और भाषा का अर्थ आ और सिखाता हूँ।
आश्चर्य शब्द होगा सुना, आज परिभाषा बताता हूँ।
श्रम से, धूल अंटे चेहरे से बेतहाशा मुस्कुराता हूँ मैं।
दरअसल दारू की सोचता,हँसने उसे उकसाता हूँ मैं।
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27/28-8-21