आशीष
मुझको का सब आशीष मिले, प्रभु ऐसी ज्योती बन जाऊँ।
और भाई-बहन की आशाओं का, कोई खजाना बन जाऊँ।।
और बनू उस माला का मोती, जो निस-दिन फेरी जाती है।
मन्दिर में रखी वह मुर्ति बनू, जो निस दिन पूजी जाती है।।
नित्य माँग में भरले अपनी, उस सिंदूर समान में बन पाऊँ।
उसके अधरों की चाहत का, प्रभु सत्य’ सदा ही पढ़ पाऊँ।।
जो बच्चे हैं माँ की कुटी में, एक पिता का साया बना रहे।
और घरो में जलता जो नित, वह चिराग सदा ही अमर रहे।।
मनभावों के छोटे से घर में, सबको प्यार बांटने आया हूँ।
सूरज के प्रकाश सा बनकर मैं, कुछ ज्ञान बांटने आया हूँ।।
©धीरेन्द्र वर्मा