आशिक!
आशिक़ बाज़-औक़ात मिज़ाज में बेतकल्लुफ़ी दिखा देता है
लापरवाह तो नहीं हाँ मगर खुद को वो बेपरवाह बना लेता है
सितम सहकर भी बस सितमगर की ही यादों में खोया ही रहे
जफ़ा करके भी ज़माना आशिक को ही खतावार बता देता है!
नज़र का धोखा है जानते हुए भी आशिक कहाँ मुँह मोड़ता है
दिल में कई ख़्वाब बसाये मोहब्बत के रेगिस्तान में दौड़ता है
वो रेत के गर्म टीलों में मोहब्बत के पानी के चश्मे खोजता है
अनजान नहीं वो बेपरवाह बनकर हरदम खुद को झोंकता है!
मानता ही नहीं सराब होगा वो वहीं अपनी मंज़िल टटोलता है
वापसी की उम्मीद छोड़ आशिक वहीं अपनी कब्र खोदता है
कभी रेतीली गर्म हवाएँ कभी बर्फीले तूफ़ानों से वो जूझता है
बेघर हुआ फ़ना होने की ज़िद में अड़ा उम्मीद कहाँ छोड़ता है!
दिलबर जिसे मान बैठा वो बस उसी से ही रूह को जोड़ता है
बेघर बर्बाद हुआ आशिक मोहब्बत का दामन कहाँ छोड़ता है
अंजाम से बेपरवाह खुद से बेफ़िक्र जाम-ए-इश्क़ में मदहोश
पतंगा है आशिक मिटने की फ़िराक़ में कोई शमा खोजता है!