”आशा’ के मुक्तक”
सतत सद्भाव से, सम्बंध इक, उसने निभाया था,
नहीं देखा तलक मुझको, वो जब स्वप्नों मेँ आया था।
करूँ कितना कृपावर्णन, समझ आता नहीं “आशा”,
अभी भी याद है वो पल, कि जब वो मुस्कुराया था..!
वही आता है, स्वप्नों मेँ, वही रहता विचारों मेँ,
उसी का नाम अँकित, प्रीति की मधुरिम किताबों मेँ ।
चमक है चाँदनी की वो, निराशा मेँ है “आशा” वो,
वही सरिता की थिरकन मेँ, सुरभि उसकी गुलाबोँ मेँ..!
लोग हैं क्यों कह रहे, आना नया इक साल है,
हम भी हाथों मेँ लिए, अक्षत हैं, रोली, थाल है।
भाव “आशा” मय, करूँ अब व्यक्त भी मैं किस तरह,
आप हैं जीवन मेँ, पुष्पित, पल्लवित हर डाल है..!
दो क़दम, साथ मेँ, मेरे भी वो, चलता तो कभी,
स्वप्न मेँ ही सही, दो पल को, ठहरता तो कभी।
वाक्पटुता मेँ है, कुशल वो, भले ही, “आशा”,
प्यार से, काश, वो दो शब्द ही, कहता तो कभी..!
कैसे कह दूँ, प्यार मेँ, उसने मुझे, धोखा दिया,
बात करने का, भरी महफ़िल मेँ भी, मौक़ा दिया।
पर हुए स्तब्ध “आशा”, व्यक्त अब, कैसे करूँ,
“आप हैं देखे हुए से”, कह के था चौँका दिया..!
अनगिनत कलियों का वर्णन, आज, पर कैसे करूँ,
सुरभि अद्भुत उसकी थी, “आशा”, प्रकट कैसे करूँ।
चाँद भी ललचा के उसको, देखता था रात भर,
रह गया था कौन उर मेँ, व्यक्त अब कैसे करूँ..!
भले वो, मौन ही, सहमति जता देँ,
नयन-घट से कभी, मदिरा पिला देँ।
अहँ इतना, नहीं अच्छा है “आशा”,
कभी तो, देखकर वो, मुस्कुरा देँ..!
स्वप्न मेँ ही कभी, अपना तो, कह दिया होता,
प्यार का मेरे, कुछ भरम ही, रख लिया होता।
साथ चलना न था, स्वीकार यदि, उसे “आशा”,
मुस्कुराकर ही वो, इक बार, मिल गया होता..!
दूर रहकर ही कभी, मुझको निभाया होता,
स्वप्न मेँ ही जो कभी, पास वो आया होता।
बात करता जो कभी, खोल के दिल वो “आशा”,
आज हरगिज़ न फिर वो, व्यक्ति पराया होता..!
असीम वेदना, युग से, भले, सहता ही रहा,
अश्रु बनकर था, उसकी आँख मेँ, रहता ही रहा।
नरम छुअन, वो उसके गाल की, अप्रतिम “आशा”,
धरा पे गिरके भी, आभार मैं, करता ही रहा..!
बजाय रोज़ के, यकमुश्त मर गए होते,
केश यदि उसके, कभी तो सुलझ गए होते।
हुए न चार, जो होते नयन, कभी “आशा”,
प्यार के जाल मेँ न, हम उलझ गए होते..!
जीवन मेँ हर दिन हो, मित्रों का, उर से अभिनंदन,
तन महके, मन महके मेरा, जैसे वन मेँ चन्दन।
बढ़ती जाए मधुर मिलन की, प्रतिदिन मेरी “आशा”,
कुछ सुन लूँ , कुछ उन्हें सुनाऊँ, हो नयनों से वन्दन..!
नाम लिख-लिख के, कई बार मिटाया हमने,
दे के आवाज़ उन्हें, दिल से बुलाया हमने।
अश्रु पी-पी के, अपनी प्यास बुझाई “आशा”,
रात की नींद, दिन का चैन, गवाया हमने..!
वो थी, मैं था, किसी का साथ न था,
दिल के तूफ़ान का, दोनों को ऐसा ज्ञान न था।
आ गया चाँद, गवाही को मुफ़्त मेँ “आशा”,
उससे मिलना भी महज़, कोई इत्तेफ़ाक़ न था..!
पुष्प-दर्शन, का उपक्रम, भ्रमर करता ही रहा,
सुरूर प्यार का, मुझपे, असर करता ही रहा।
उसकी यादों का काफ़िला, चला सँग-सँग “आशा”,
वेदनाओं के दरमियाँ, बसर करता ही रहा..!
गीत, मिलकर के मुझसे, प्रीत का गाया क्यूँ था,
उर मेँ मेरे, वो इस क़दर भी, समाया क्यूँ था।
वेदना दे के ही, आता था यदि, मज़ा “आशा”,
मुस्कुराहट वो, मुझे देख कर, लाया क्यूँ था..!
प्रीति को अपनी, ज़माने से कुछ, छुपा रखना,
झूठ की भीड़ मेँ, सच को, ज़रा जुदा रखना।
आज है ईद, गले मिलके, वो कह देँ “आशा”,
इश्क़ है तुमसे ही, मुझसे न अब गिला रखना.!
सुरभि, से किसकी, है रँगत सी ये निखर आई,
किसके कौमार्य को, पवन अभी, छू कर आई।
मिलन की किससे है, “आशा” सी जग उठी उर मेँ,
याद कर किसको, मिरी आँख फिर से भर आई..!
मिरे अधरों पे भी, हँसी होती,
की न उसने जो, दिल्लगी होती।
अपनी कहता भले,जी भर “आशा”
बात मेरी भी कुछ, सुनी होती..!
नहीं था ज्ञान, वो मौसम सा, बदल जाएगा,
दिल मिरा, टूट के, शीशे सा, बिखर जाएगा।
अश्रु पीता गया, नयनों से जो, बहे “आशा”,
क्या ख़बर था कि मिरा रूप, निखर जाएगा..!
बिन किसी बात के, नाराज़ भी, हो जाता है,
तरस खाकर के, फिर अहसान भी, जताता है।
यदि है अहसास, प्रीत का नहीं, उसको “आशा”,
बेधड़क फिर, मिरे स्वप्नों मेँ, क्यूँ आ जाता है..!
कुछ हुआ उद्विग्न, किसकी आरज़ू, करता रहा,
तपिश भी मद्धिम, निरन्तर सूर्य जो, ढलता रहा।
लालिमा थी क्षितिज की, “आशा” जगाती ही गई,
अब दिखेगा चाँद, मेरा हौसला, बढ़ता रहा..!
बनके अपना उसने, सारा फ़लसफ़ा झुठला दिया,
शब्द का माहात्म्य, मेरे दिल पे था, गुदवा दिया।
टीस बन “आशा”, उभरता मुक्तकों मेँ वो रहा,
कौन है अपना, परायों ने मुझे, समझा दिया..!
पढ़ी जो बात, पुस्तकों मेँ , कब भाई मुझको,
भला हो उसका, जिसने प्रीत, सिखाई मुझको।
प्रेम धोखा है, कहाँ ज्ञान था, मुझे “आशा”,
ख़ुद पे गुज़री, तभी जाकर, समझ आई मुझको..!
ख़ूबसूरत है वो इतना, कहा नहीं जाता,
उसको देखे बिना भी अब, रहा नहीं जाता।
उसके सम्मुख, टिकेगा दाग़ भी कैसे, “आशा”,
चाँद से, रूप वो निर्मल, सहा नहीं जाता..!
चाहता, वो भी है, दिल से, मुझे सपना आया,
उसे भी क्यूँ मगर, अब मुझको, समझना आया।
जब भी अपनों की, चली बात सभा मेँ “आशा”,
उसको लज्जा से, स्वयं मेँ ही, सिमटना आया..!
सुकूने-दिल था मुझे, जिसके, नाम से आया,
कुछ था उद्विग्न, आज जो वो, शाम से आया।
वार्ता, प्रेम की होगी, जगी “आशा”, मुझमें,
हाय, कमबख़्त, पर वो, और काम से आया..!
दे न, कोई और अब, दुआ मुझको,
है रिहाई भी, इक सज़ा, मुझको।
वैद्य, झूठे हैं सब, यहाँ “आशा”,
उसका दीदार बस, दवा मुझको..!
याद उसकी, ख़याल भी उसका,
दर्द उसका, तो ख़्वाब भी उसका।
साँस मेँ है, वो समाया “आशा”,
दिल पे अँकित, वो नाम भी उसका..!
उसकी बातों मेँ था, स्वयं को, खोजता ही रहा,
कैसे कह दूँ , कि, प्रीत है, ये सोचता ही रहा।
मुस्कुरा कर ही वो मिला था, क्यूँ मुझसे “आशा”,
फ़रेब को मैं, उम्र भर था, कोसता ही रहा..!
अगाध प्रीति का, आरोप भी, मिरे सर है,
मुस्कुराता हूँ, फिर भी दीद क्यूँ, मिरी तर है।
उसका आभार, किस तरह से अब करूं “आशा”,
रुष्ट है वो भले ही, मुझको, समझती पर है..!
धूप निर्मम थी, कोई छाँव उगाता कैसे,
शोख़ कलियों के भी, दुश्मन कई सारे निकले।
प्रीति पगली थी, सुरभि सी थी उड़ पड़ी चहुँदिश,
जिनसे “आशा” थी, वही इक न हमारे निकले..!
रूप और रँग मेँ , उसका न भले सानी है,
अश्रु नयनों के भी तो, उसकी मेहरबानी है।
समझ सका न था, वो उम्र भर मुझे “आशा”,
रीत मुझको तो फिर भी, प्रीत की निभानी है..!
सानी # समकक्ष, समतुल्य आदि, equivalent
मिरी ग़ज़ल जो वो, अधरों पे अपने, लाते हैं,
मिरे अशआर भी, “आशा” से, मुस्कुराते हैं।
भले सभा मेँ वो, देते नहीं हैं, दाद मुझे,
गीत तनहाई मेँ, मिरे ही, गुनगुनाते हैं..!
है वल्लाह, तौबा, वो रूठे हैं फिर से,
मनाने मेँ जिनको, ज़माने लगे हैं।
सुना है कि “आशा”, हैं बेचैन वो भी,
तो क्या फिर से हम, उनको भाने लगे हैं..?
प्रीत की रीत भी, प्रत्येक, निभा आऊँगा,
हरेक उधार भी, उसका, मैं चुका आऊँगा।
अश्रु उसके, मिरे नयनों मेँ, हैं युग से “आशा”,
उन्हें भी, उसके ही, दामन पे, गिरा आऊँगा..!
याद कर उसको, मिरी आँख जो, भर आती है,
ग़लत लिखता हूँ, यही उसकी, ख़बर आती है।
अदा भी उसकी, करूँ व्यक्त, कहाँ तक “आशा”,
उसमें हर वक़्त, नयी बात, नज़र आती है..!
मिरी हालत पे, तवज्जो भी, कहाँ दी उसने,
देखकर मुझको, अपनी दृष्टि फेर ली उसने।
उसकी नाराज़गी, वर्णन करूँ कैसे “आशा”,
आह पे मेरी, वाह भी, तो नहीं की उसने..!
जीवन का हर रँग जिए हो, तुम भी ना,
कैसे-कैसे प्रश्न किए हो, तुम भी ना।
इच्छाओँ का ज्वार, अपरिमित है “आशा”,
उस पर जर्जर नाव लिए हो, तुम भी ना।
दूर, मँज़िल थी भले, तेज़ मगर, चल न सके,
पुष्प तो पुष्प थे, काँटे भी, गिला कर न सके।
रौँद करके निकल जाना, न थी फ़ितरत “आशा”,
बोझ इतना नहीं डाला, जो कोई सह न सके..!
स्वयं को सूर्य, सब बताए हैं,
तीरगी, मेँ ही, जो, नहाए हैं।
अब अँधेरों से, डरें क्यूँँ “आशा”,
हम उजालों को, आज़माए हैं..!
तीरगी # अन्धकार, darkness
प्रीत पगली है, यही सान्त्वना, मुझको अब है,
देख पाया नहीं, जी भर उसे, यही ग़म है।
उसके हाथों से,इक क़तरा ही,बहुत है “आशा”,
तिश्नगी को मिरी, वर्ना तो, समन्दर कम है..!
तिश्नगी # प्यास, thirst
दोस्त कहता है, पर दुश्मन सी नज़र रखता है,
दिल चुरा कर, मिरी साँसों की ख़बर रखता है।
गुणों की उसके, हो तारीफ़ कहाँ तक “आशा”,
ज़ख़्म हर दम, हरा रखने का, असर रखता है..!
अपने सौभाग्य पर तो, जमके हम इतराते हैं,
लगे नज़र न कहीं, सोच के घबराते. हैं।
उनसे कह दो, करें न फ़िक्र वो मिरी “आशा”,
अश्रु पी-पी के, हम तो, और निखर आते हैं..!
दिल का मेरे दर्द बने हो, तुम भी ना।
ख़ुद को बैद- हकीम कहे हो, तुम भी ना।
क्षमा मिरी त्रुटियाँ, अब तो कर दो “आशा”,
मेरी ओर ही, पीठ किए हो, तुम भी ना..!
उसकी स्मृति को, तहे-दिल से था, सेता ही गया,
रेत सूखी थी, मगर नाव, को खेता ही गया।
उसका आभार भी, कितना मैं अब करूँ “आशा”
इम्तेहाँ, वो मिरा, हर मोड़ पे, लेता ही गया..!
अपनी दरियादिली, का दृश्य, दिखाया होता,
कभी तो काश, उसने मुझको, सराहा होता।
भले नहीं था यूँ, हीरा मैं, सत्य है “आशा”,
समझ पाषाण ही, थोड़ा तो, तराशा होता..!
गर्मजोशी से, इक ख़याल मिला करता है,
दिल मेँ है वो, यही सुकूँ सा, रहा करता है।
कुछ अनासिर हैं उसके, घुल गए मुझमें “आशा”,
मुझको दर्पण भी क्यूँ, हैराँ सा, दिखा करता है..!
अनासिर # तत्व, elements
वार्ता हो रही थी, दिल मगर, रोता ही गया,
सही-ग़लत, का खेल, मुब्तिला, होता ही गया।
याद कर जिसको, भूलता था सभी ग़म “आशा”,
उससे मिलकर था आज, चैन क्यूँ खोता ही गया..!
मुब्तिला # उलझा हुआ, फँसा हुआ, afflicted, distressed etc.
कैसे कह दूँ, रहा, क़सूर था, इसमेँ, किस का,
न तो था ज्ञान, प्रीति का, न था, अनुभव इस का।
झील नयनों की, डुबा ले गई, नख-शिख “आशा”,
कैसे बचता भला, जो फ़ैसला, ये था, दिल का..!
कौन है, उर मेँ जो, समाया है,
किस ने यूँ, उम्र भर, सताया है।
अक़्स किसका,है दिख गया “आशा”,
आज, दर्पण जो, मुस्कुराया है…!
ग़म खिलाकर, वो अश्रुओं को, पिला देता है,
बिन पढ़े ही, मिरे ख़तों को, जला देता है।
न्यायप्रिय ख़ुद को, बताता है वो भले “आशा”,
बिन मगर, दोष बताए ही, सज़ा देता है..!
अब न रिश्ता, कोई, हरगिज़ ही, मुझे, रास आए,
वफ़ा, वादा, सदृश शब्दों से, ना ही, आस आए।
तैरने का है, यूँ तो, ज्ञान, मुझे भी “आशा”,
ज़िद मिरी, चल के ख़ुद, साहिल ही, मिरे पास आए..!
साहिल # नदी या समन्दर का कनारा, bank of the river or seashore
तेरी दाद का, नशा सा, क्यूँ मुझपे, छा रहा है,
साहिल हो, या समन्दर, हर शब्द, भा रहा है।
कह दूँ सभा मेँ कैसे,अब दिल का हाल ‘आशा”,
जीने का शौक़ मुझको, मरना सिखा रहा है..!
आ गए रास, अपने फ़र्ज़ मुझे,
न तो है गर्म, न कुछ सर्द मुझे।
वेदना इतनी, मिल चुकी “आशा”,
अब न ठोकर का, कोई दर्द मुझे..!
अश्रु, पी-पी के, हूँ निखरा, कमाल कैसा है,
जिसका उत्तर नहीं मिलता, सवाल कैसा है।
क्यूँ उलहना, भला करूँ न मैं, उनसे “आशा”,
कभी तो, पूछ लेँ, मुझसे, कि, हाल कैसा है..!
पूछते सब हैं, मिरी आँख, भला, क्यूँ नम है,
मुस्कुराता हूँ भले, फिर भी पर, कुछ तो ग़म है।
यूँ तो, ज़्यादाद की, कमी नहीं, उसे “आशा”,
दिल मेँ रहता है मिरे, ये भी क्या, मुझे कम है..!न
नमी, नयनोँ मेँ है, फिर भी मैं मुस्कुराता हूँ,
फ़र्ज़ हर, प्रीत का भी, दिल से मैं निभाता हूँ।
यूँ तग़ाफ़ुल तो है, फ़ितरत रही उसकी “आशा”,
दिल मेँ रहने का पर, आभार मैं, जताता हूँ..!
तग़ाफ़ुल # नज़रन्दाज़ करना, to neglect
तसव्वर मेँ, कोई, रहने लगा है,
मिरा दिल,उसमें क्यूँ, रमने लगा है।
मिरा अस्तित्व, खोया उसमें “आशा”,
ये रिश्ता,मुझको क्यूँ ,जँचने लगा है..!
तसव्वर # ख़याल, imagination
सुब्ह सोचूँ, तो शाम को सोचूँ,
उसके भेजे, पयाम को सोचूँ।
दृष्टि ही, इतनी है मादक “आशा”,
क्यूँ मैं मदिरा, या जाम को सोचूँ..!
पयाम # सन्देश, message
प्रीति का मेरी, कुछ भरम ही, रख लिया होता,
स्वप्न मेँ ही कभी, इक़रार, कर लिया होता।
उसको जज़्बात, समझने का वक़्त कब “आशा”,
काश मुक्तक ही कभी, दिल से पढ़ लिया होता..!
इक़रार # स्वीकारोक्ति, acceptance
आज क्यूँ सूर्य भी, हैवान नज़र आता है,
हरेक पथ यहाँ, सुनसान नज़र आता है।
हवा हुई है, हवाओं की नमी क्यूँ “आशा”,
गाँव भी आज, परेशान नज़र आता है..!
दिलों का फ़ासला, हरगिज़ था, मिटाया न गया,
प्रीत की, राह की, बाधा को, हटाया न गया।
खेल “मैं”और “तुम” का, उम्र भर चला “आशा”,
उससे अधरों पे मगर, “हम” कभी, लाया न गया..!
चाहता उसको हूँ, यदि मैं, ग़लत इस में, क्या है,
समझ पाता नहीं, उसके मगर, दिल में, क्या है।
लगे नया सा है, हर बार, वो, मुझे “आशा”,
पूछ मत मुझसे, कि ऐसा मगर, उस में क्या है..!
चाह कर भी, भले ही कह, कभी न पाते हैं,
दर्द को उनके, अपने दिल से, हम लगाते हैं,
इतनी उद्विग्नता, उचित भी, नहीं है “आशा”,
हम तो सजदे मेँ उनके, यूँ ही, सर झुकाते हैं..!
दिल जो, उस नाज़नीं को दे आए,
कुछ तो गुण भी थे उसके, ले आए।
मेरी भाषा, हुई मृदुल, “आशा”,
नाम उसका, जो ज़ुबाँ पे आए..!
कुछ बात है, हरगिज़ न, आँख की नमी गई,
उर की व्यथा “आशा” थी ,मगर कब कही गई।
काँटों से दिल लगाओ, निभाएँ जो उम्र भर,
फूलों से तपिश, साँस की भी कब सही गई..!
दया, क्षमा का ही, सन्देश सबको देते हैं,
हम तो काँटों को भी, नरमी की छुअन देते हैं।
कार वालों से, गिला, क्यूँ न हो, हमें “आशा”,
बेरहम बन के जो, फूलों को, कुचल देते हैं..!
याद कर-कर के उसे, यूँ ही, महक जाऊँगा,
सुरूर मेँ हूँ, बिन पिए ही, बहक जाऊँगा।
वेदना का, तो यूँ अभ्यस्त हूँ, मगर “आशा”,
किसी का अश्रु हूँ, छेड़ा, तो ढुलक जाऊँगा..!
ना तो सुनता है मिरी, ना ही कुछ भी, कहता है,
स्व्प्न मेँ भी वो, अजनबी की तरह, मिलता है।
प्रीति भी है, अजब सम्बन्ध इक, मगर “आशा”,
बेधड़क ,अब भी मगर, दिल मेँ वही, रहता है..!
अक्स ने उसके, कभी मुझको, सँवरने न दिया,
मुझको दरपन से, गिला तक कभी करने न दिया।
यूँ तो टूटा था, कई बार, है ये सच “आशा”,
याद ने उसकी, पर कभी भी, बिखरने न दिया..!
नाम अपना भी हम तो, इश्क़ मेँ कर जाएँगे,
उन की आँखों को, आँसुओं से ही भर जाएंगे।
मेरी नीयत पे, करें शक न वो हरगिज़ “आशा”,
देखते-देखते ही, हम तो, गुज़र जाएंगे..!
सानिध्य हो मित्रों का, उर से वार्ता करते रहें,
निर्मल रहे मन, परस्पर, सन्ताप सब, हरते रहें।
नैराश्य, ना घेरे कभी, “आशा” का दम, भरते रहें,
नित प्रेम की कलिका खिले, कविता मधुर रचते रहें..!
हर कोई है, दश्त मेँ, हम्ज़ा नहीं,
ख़ार भी है ज़ीस्त, बस सब्ज़ा नहीं,
खेल, “मैं,-तुम” का चला था उम्र भर,
“हम” को”आशा”,उसने पर समझा नहीं..!
दश्त # जँगल ,forest
हम्ज़ा # शेर, lionख़ार # कँटक, thorn
ज़ीस्त # ज़िन्दगी,life
सब्ज़ा # हरियाली, greeneries
अपने रुख़सार को,हरगिज़ वो,दिखाता ही नहीं,
इश्क़े-दस्तूर को, भूले से, निभाता ही नहीं।
उसकी रानाइयोँ का, हूँ मुरीद, पर “आशा”,
हाय कमबख़्त, ख़्वाब तक मेँ तो आता ही नहीं..!
रानाइयाँ # (अतिशय) सौंदर्य, (unsurpassed) beauties
युगों-युगों से ,सुनी, सब की यह, ज़ुबानी थी,
ये हक़ीक़त है, भले ही, लगे, ‘कहानी थी।
सबकी नज़रों मेँ,’ खटकती थी, प्रीत क्यूँ “आशा”,
इक थी मीरा, जो, किशन की बड़ी दीवानी थी..!
28/03/2024
किसको छूकर के आज, बाद-ए-सबा आई,
आज क्यूँ कर किसी को, याद-ए-वफ़ा आई।
दिल गिरा टूट के, ज़मीँ पे भले ही “आशा”,
पर न हरगिज़ लबों पे, आह-ए-क़ज़ा आई..!
24/08/2024
याद आते हैं, हसीं दौर के, मन्ज़र सारे,
अश्क़ उसके ही अब मिरे हैं मालो-ज़र सारे।
तर्के-वादा, फ़िराक़े-ग़म ओ इन्तज़ार “आशा”,
मिरे सीने मेँ ही, उतरे हैँ क्यूँ, ख़न्ज़़र सारे..!
मन्ज़र # दृश्य, scenes
मालो-ज़र # धन सम्पत्ति, valuables
तर्के-वादा # वादाख़िलाफ़ी, to break the promise.
फ़िराक़े-ग़म # विरह-वेदना, agony of separation
27/08/2024
निश्छल नहीं हैं लोग, भुलाया न कीजिए,
हर बात हृदय की भी, बताया न कीजिए।
“आशा” है आपसे भले, पुरज़ोर हमारी,
इतना भी मगर हमको, रुलाया न कीजिए..!
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