आशाएं
आशाएं,
इन्हें शायद ही
कुछ शब्दों में बयां किया जा सकता हो
कविताओं में,छंदों के चंद टुकड़ों में
और कोई वादक
अपनी तालों में बिठाकर
संगीत के लय में
पूरी तरह से सहेज पाता हो।
या कभी कोई गीतकार
अपनी बहरों के रुक्नों में
इन्हें मुकम्मल तोड़ पाता हो।
आशाएं तो जन्म लेती हैं, नष्ट हो जाती हैं
कभी तोड़ दी जाती हैं, कभी जोड़ दी जाती हैं
और एक ऐसी ही स्थिति
जब मन क्षुब्ध होकर
सुप्त अवस्था में जाने लगता है
तो धीरे धीरे आशाएं भी मिटने लगती है
लेकिन एक छोटी सी उम्मीद भी
मिट रही आशाओं को
एक किरण में परिवर्तित कर
सुप्त मन को जगा देती है
तब चाहें मन का हर कोना रोशन हो न हो
मगर वह विश्वास बनाये रखती हैं
एक कामयाबी के उजाले की ।
शिवम राव मणि