आशाएं
कभी-कभी सोचती हूँ ….!
यूं ही…पहले की औरते,
इतनी ताकत कैसे लाती थी ।
शायद …..!
झोंक देती थी सपने अपने,
चूल्हें की आग में, रोटियों के संग,
खुद तपकर सोना बन जाती थी ।
सिलबट्टे में चटनी,मसाले बाटते-बाटते,
पीस देती थी,अपनी खीज,
खुद शीतल,सरल बन जाती थी ।
पीसते हुए,भोर में,चक्की में आटे को,
नींद को ,घुमा- घुमाकर, भगा देती थी ।
दूध का जमघट देख,भा लेती थी मट्ठा,
और देह को, मक्खन सा, बना लेती थी ।
किसी की बातों से ,धड़क जाए आंसू ना,
घूघट में छिपा,खुद मजबूत कहलाती थी ।
“आशाएं”