आव्हान
पंच तत्व काया सागर की
सजल नेत्रों की सीपी में
विकल वेदना के अश्रु ये
मृत्यु तक सहेज रख लूँ
इहलोक से प्रस्थान कर जब
जाऊँगा मिलने उस प्रभु से
देकर भेंट अश्रु के मोती
पूछूँगा कुछ प्रश्न अवश्य मैं।
घना अँधेरा छाया जग में
क्यों तज कर इसको सोया है
अधर्म, अन्याय की पीड़ा से
जब जन जन, नित नित रोया है
कोटि कंसों के कृत्यों को
क्या मूक समर्थन तेरा है
अपराधियों के मस्तक पर
क्या वरद हस्त भी फेरा है
दूषित हो गयी धरती तेरी
गंगा भी अब मैली है
प्रेम का तो नाश हो गया
घृणा हर तरफ फैली है
अन्नपूर्णा की अवनि पर
क्यों बच्चे भूखे सोते हैं
दरिद्रता के दंश से घायल
लाखों बचपन रोते हैं
क्या द्रवित हृदय नहीं कहता तेरा
ले लूँ विश्व निज आलिंगन में
सांत्वना का सौम्य स्पर्श दे
भर दूँ खुशियां हर आँगन में
प्रह्ललाद की एक पुकार पर
वैकुण्ठ प्रभु तुम छोड़े थे
गजराज के क्रंदन को सुनकर
नग्न पाँव ही दौड़े थे
सिया हरण कर एक दशानन
युगों युगों से जलता है
पर पापी उसे से भी बड़ा
गली गली में पलता है
दुःशासनों के दुष्कर्मों ने
जब द्रौपदियों को रुला दिया
विनाशाय च दुष्कृताम् का
वचन क्यों तूने भुला दिया
आस्था भी तो लुप्त हो रही
विश्वास कहाँ फिर टिकता है
धर्म कैसे फिर शेष रहे जब
न्याय यहाँ नित बिकता है
अब यदि कहते हो इठलाकर
मांग ले जो मांगता है
अरे क्यूं माँगूं मैं कुछ तुझसे
जब मेरा मन जानता है
तब न दिया तुमने कुछ हमको
अब कैसे तुम दे पाओगे
संकीर्ण हृदय की परिधियों से
बाहर कैसे आ पाओगे
पर उचित नहीं आरोप ये मेरा
कि दया नहीं हृदय में तेरे
मैं ही तुझको देख न पाया
तू तो हरदम साथ था मेरे
तूने ही तो दिया है हमको
लोकतंत्र का ये उपहार
समय आ गया उठ खड़े हों
करें मतों का प्रचंड प्रहार
यथा राजा तथा प्रजा का
युग दशकों पहले बीत गया
जैसी जनता, वैसा शासन
प्रजातंत्र का गीत नया
कल का क्लेश, करुण क्रंदन
आज आक्रोश का आव्हान हो
उठो चलो एक सुर में बोलें
प्रखर प्रचंड प्रतिपादन हो
नाद नया नभ में गूंजे यूँ
सिंहासन भी डोल पड़ें।
जोश ध्वनि में भर लो इतना
मूक वधिर भी बोल उठें
बहुत हो गया विलाप, प्रलाप अब
हम ना तुझे पुकारेंगे
अपनी नियति अपने हाथों से
अब हम स्वयं संवारेंगे