आवारग़ी
जिंदगी भर सुकूँ ढूंढता रहा आवारा बनकर।
कभी ढूंढा उसे तन्हाइयों में गुम हो कर कर।
कभी ढूंढा उसे इश्क़ की गहराइयों में डूब कर।
कभी ढूंढा उसे हुस्ऩ की राऩाईयों में फ़िदा होकर।
कभी ढूंढा उसे मय़नोशी की मदहोश़ी में बेख़ुद होकर।
मेरी आवारग़ी से ज़माने भर में हुई मेरी रुस़वाई।
पर क्या करूं मुझ जैसे आवारा को आवारग़ी ही रास़ आई ।