आवारा बादल
कहाँ उड़ चले, कहाँ उड़ चले,
आवारा बादल कहाँ उड़ चले।
लगता है बादल हुए आज पागल ,
उन्हें न खबर वे कहाँ उड़ चले।
पुरवा हवा है यही जानती है,
कहाँ अपनी मंजिल यही जानती है।
बिना जाने समझे इसके संग उड़ चले।
हमें न खबर कि कहाँ उड़ चले।
लगता है पुरवाई यह सागर तक ही जायेगी।
बेसहारा सा हमको यह वहीँ छोड़ जायेगी।
मंजिल की खोज में ऊम्र बीत जायेगी।
आखिर हवा यह हमसे यूँही जीत जायेगी।
आंसुओं में घुल जाने को उधर उड़ चले।
हमें न खबर कि कहाँ उड़ चले।
न तो अपना घर है न कोईं ठिकाना।
पुरवा हवा के संग में जन्म बिताना।
इसके दम पे अपनी हंसी अश्क बहाना।
इसी के सहारे हमको पथ में बढ़ते जाना।
तभी तो बिना सोचे हम उड़ चले।
अपने तो सुख-दुख सारे इसी के ही संग हैं
इसी के सहारे अपनी जिंदगी मे रंग हैं।
आवारा पागल हैं पर कुछ तो उसूल हैं
अपना घर उजाड़ रेखा हम खिलाते फूल हैं
फिर न कहना कोई हम कि कहाँ उड़ चले
रेखा रानी