आवाज मन की
#दिनांक:-8/6/2024
#शीर्षक:-आवाज मन की
ताना-बाना दिमाग का मन से,
छुआ-छूत जाति-धर्म मन से ।
मिटाते भूख नजर पट्टी बांध-,
बाद नहाते तृप्त हो तन से।
क्या गजब खेल मन का भईया ,
दुश्मन भी कुछ पल का सईया।
उद्घाटित उद्वेलित उन्नत उन्नाव -,
उद्विग्न हो नियम की मरोड़ता कलईया।
फिर दलित सवर्ण हो जाते समान,
हवस मिटा करते भी हैं बदनाम ।
धर्म कहाँ गुम हो जाता उस क्षण-,
बर्बाद कर जिन्दगी बनते महान।
आदिकाल से ऐसा होता आ रहा,
मजबूर माँ-बाप रोता रह जा रहा।
आखिर कब ये सिलसिला रुकेगा-,
मामला दिन ब दिन बढता जा रहा।
कौन सा अब कानून बनाया जाए,
बलात्कार पर अंकुश लगाया जाए।
मन की तृप्ति सम्भव जान पड़ती-
तन की अतृप्ति रोज सुनामी लाए।
आवाज मन की है उद्गार कौन करे,
तड़प मन की है भाव कौन पढे ।
अपनी खिचड़ी में परेशान दुनिया,
सुरक्षित सुरक्षा कवच कौन गढे ।
(स्वरचित, मौलिक, और सर्वाधिकार सुरक्षित है)
प्रतिभा पाण्डेय “प्रति”
चेन्नई