” आलोचनाओं से बचने का मंत्र “
डॉ लक्ष्मण झा परिमल
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हम बोल चाल की भाषाओं में अलंकृत भाषाओँ का प्रयोग यदाकदा ही करते हैं ! हो सकता है किन्हीं को रास ना आये ! ये सारी बातें निर्भर करती है कि सामने वाले कितने धुरंधर हैं ! उन्हें रागों का ज्ञान है या नहीं ? बेवजह अपनी धुनों पर नाचना प्रारम्भ कर दिया ! उन्हें भी तो ताल मात्राओं का अनुमान होना चाहिए ! सहजता तो तब होती है जब संवादों में सरलता का समावेश होता है ! पर लिखने की प्रक्रिया में भिन्यता आनी स्वाभाविक है ! हम पहले विषय वस्तु का चयन करते हैं ! फिर अपने मानस पटल में इसकी रचना करते हैं ! अब हमारा वक्त आता है ! अपनी कलमों से उस लेख को सजाते हैं ! उत्कृष्ट शब्दों और वाक्यों से हम अपने लेखों को एक नया रूप देने का प्रयास करते हैं ! यहाँ हम अपने सभी बंधनों से मुक्त हो जाते हैं ! अब यदि हम किसी विवादित विषयों को चुन लें या ऐसी बातें हम लिख देते हैं तो हमें लोग अनाड़ी कहेंगे ! ……..कोई आहत भी हो सकता है ! ……बोलचाल में हम भाषाओँ का चयन करने में समय नहीं गमाते पर लिखी गयी बातों का असर लोगो के लिए संक्रामक रोग बन जाता है ! लिखने के क्रम में एकाग्रता ,धैर्य ,शालीनता और शिष्टाचार के वस्त्रों को सदा ही अपने अंगों में लगा कर रखना चाहिए ! हमने तो अपने गुरुओं से सीखा है कि अपने लिखे हुए लेखों को पहले बार -बार पढना चाहिए और विवादित टिप्पणियों से बचने के लिए ….. ” अधिकांशतः… ,प्रायः प्रायः……. ,कभी -कभी…… ,हो सकता है…..यदाकदा…….., ” …….इत्यादि के प्रयोगों से हम कितने ही आलोचनाओं के चक्रव्यूहों को तोड़ सकते हैं !
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डॉ लक्ष्मण झा परिमल
दुमका