#आलेख-
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■ एकाकीपन : आधा-अधूरा अभिशप्त जीवन
【प्रणय प्रभात】
कभी किसी शायर ने चलते-फिरते एक शेर कहा था, जो तब से कहीं अधिक प्रासंगिक अब है। शेर कुछ यूं था-
“सुब्ह होती है शाम होती है।
ज़िंदगी यूं तमाम होती है।।”
बस, इन्हीं दो पंक्तियों के बीच छिपा है आज अधिकांश लोगों के जीवन का सार। उस जीवन का, जो एकाकी है। अपने आप में सिमटा हुआ। अपने माहौल की क़ब्र, अपनी तन्हाई की चारदीवारी में क़ैद। जिसकी नुमाइंदगी पद्मश्री डॉ. बशीर “बद्र” का यह शेर करता है-
“कहानियों का मुक़द्दर वही अधूरापन।
कहीं फ़िराक़ नहीं है कहीं विसाल नहीं।।”
शायद यही है अधूरेपन से जूझती ज़िंदगी की दास्तान। जिसकी जद में आज असंख्य ज़िंदगियाँ हैं। कुछ सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक बजह से। कुछ स्वभाव-वश तो कुछ प्रारब्ध व निज परिस्थितियों के कारण। अपने इर्द-गिर्द देखेंगे तो पाएंगे कि आज के दौर में ऐसी अधूरी दास्तानों की भरमार है। जिनसे जुड़े पात्र अंतर्मुखी, आत्म-केंद्रित होकर सिर्फ़ ख़ुद के लिए जी रहे हैं। वो भी किसी और के नहीं, ख़ुद के सहारे। हताशा, अवसाद और कुंठाओं के त्रिकोण में कसमसाते हुए।
वर्ष 2020 से 2022 के बीच के आपदा-काल ने एकाकी लोगों की तादाद को कई गुना बढ़ाने का काम किया। जबकि इस दंश को भोगने वालों की संख्या पहले भी कुछ कम नहीं थी। वैचारिक मतभेद या विसंगत जीवन-शैली के कारण बड़े पैमाने पर सम्बंध-विच्छेद भी समाज में तन्हा लोगों की भीड़ बढ़ाने की बड़ी वजह बनते आ रहे हैं। इनके अलावा एक बड़ा समूह उनका है, जिनके पास सब कुछ है बस समय नहीं है। यह पीढ़ी वो है जिनके वर्तमान को अच्छे भविष्य की जद्दो-ज़हद दीमक बन कर चाटे जा रही है।
आज के ऊहा-पोह भरे जीवन की गाड़ी चलाने के लिए दिन-रात की दो अलग-अलग पारियों में अपनी बारी के मुताबिक़ केवल काम और जीवन देखते ही देखते तमाम। बस, आज की दुनिया के इसी कड़वे सच के बीच धड़कते युवा दिलों की पीड़ा और त्रासदी को मुखर करना हो तो उसका एक ही माध्यम है और वो माध्यम है अनुभूत की सहज-सरल अभिव्यक्ति। जो किसी भी रूप में, किसी भी माध्यम से संभव है। बशर्ते मन में उद्वेग, आवेश, भावातिरेक से मुक्त होने की हो। अवसाद, कुंठा व नैराश्य से छुटकारा पाने की हो, जो जीवन को घुन बन कर नष्ट कर रहे हैं। इसी तरह एक माध्यम स्वाध्याय है। ख़ास कर उनके लिए, जिनकी सोच पर थोथे समाज का खोखला भय सवार है। उसी बेरहम और बेशर्म समाज का, जो केवल भीड़ के साथ दौड़ने का आदी है। बिल्कुल भेड़ की तरह, जिसे अपनी धुन में चलने के सिवा और कुछ आता ही नहीं। संवेदना और सरोकार से परे।
एक ऐसा गीत जो अस्तित्व पाने के बाद
आज की बात आप जैसे सुधि मित्रों को जीवन की आपाधापी में दम तोड़ते जज़्बातों से परिचित कराने के लिए है। ताकि आप इस तरह के आधे-अधूरे लोगों के प्रति संवेदना का भाव अपने में जगा सकें। उन्हें मानसिक सम्बल व नैतिक समर्थन दे सकें। पास न जा सकें तो दूर रह कर भी। मेरी तरह उनके मनोभावों को अपने सृजन के जरिए मुखरता दे कर। संभव है कि उनकी पीड़ा को लेकर निर्मम समाज की सुप्त चेतना जागृत हो सके। उन्हें ऐसा कुछ लिखने-पढ़ने, साझा करने के लिए प्रेरित करें। ऐसा एक प्रयास जो उनके पाषाण से मन को मनन पर बाध्य कर सके।
ऐसे एक प्रयास के लिए ज़रूरी हैं भावों के अनुरूप बिम्ब और प्रतिमान की सतत खोज। जिसे लेकर एक प्रयोगधर्मी रर्चनाकार के तौर पर सदैव कल्पनारत रहना भी ज़रूरी है। ताकि सामाजिक सरोकारों के साथ न्याय हो सके। साथ ही लिव-इन-टेशनशिप जैसी अपसंस्कृति के विरुद्ध सह-अस्तित्व की सांस्कृतिक अवधारणा को बल मिले और हमारा समाज व परिवेश अनैतिक अपराध व अपराधियों से भी निजात पा सके। जो इसी तरह की कुंठा के बीच उपजते हैं। मंशा आज यही सब कहने-सुनने की थी। मन हो तो मेरी बात मन से ही पढ़िएगा। रात की तन्हाई को सिरहाने लगा कर पूरी फुर्सत में। अपने उन दिनों को ज़हन में रख कर, जब आप भी जवान थे। तमाम पाबंदियों के बावजूद इस तरह की मजबूरियों से कोसों दूर। उस एक अभिशाप के ख़िलाफ़, जिसे कुछ ख़ुद ओढ़ते हैं। कुछ को दुनिया के क्रूर क़ायदे ओढ़ा देते हैं कथित विचारधारा या मान्यता के नाम पर। आप कुछ महसूस कर पाएं तो मुझे भी बताएं, लेकिन संजीदगी के साथ। शुक्रिया दिल से, आपकी इनायतों व नवाज़िशों के नाम। जय सियाराम।।
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)