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■ “एक्जिट पोल” माने “तीर में तुक्का”
★ केवल मज़ा लें, भरोसा न करें आंकड़ों के झूठे खेल पर
★ गर्भवती से प्रसूता बन ईव्हीएम सामने लाएंगी सच
【प्रणय प्रभात】
टेलीविज़न पर चार बच्चे “कौन बनेगा करोड़पति” देख रहे थे। ऊपरी तौर पर यह एक सामान्य सा नज़ारा था, मगर ऐसा नहीं था। वजह था खेल-खेल में खोजा गया एक नया खेल। जो अपने आप में अनूठा और दिलचस्प था। चारों बच्चे उक्त शो के प्रतिभागियों के समानांतर खेल रहे थे। मज़े की बात यह थी कि दीन-दुनिया का ज्ञान चारों में से एक को नहीं था। सारा खेल बस एक मनमाने तऱीके पर केंद्रित था। जो सभी के लिए रोचक साबित हो रहा था। जैसे ही सवाल पूछा जाता, चारों बच्चे चार दिशाओं से जवाब निकाल लाते। जैसा कि वो तय किए बैठे थे। हर सवाल के जवाब में एक बच्चा “ए” बोलता, तो दूसरा “बी।” तीसरा “सी” बताता, तो चौथा “डी।” यक़ीनन, किसी एक का जवाब सही होना था और हो भी रहा था। जिस बच्चे का जवाब सही निकलता, वो अगले सवाल तक घर के बाक़ी लोगों का “सुपर हीरो” बन जाता। जबकि बाक़ी तीन “ज़ीरो बटा ज़ीरो।” हर सवाल के बाद चर्चा में केवल सही जवाब देने वाला बच्चा तारीफ़ों के केंद्र में होता और बाक़ी तीन हाशिए पर। इस तरह कॉलर ऊंचा कर के “हुर्रे” बोलने का मौका चारों बच्चों को बारी-बारी से मिल रहा था। घर वाले इस बात को लेकर गदगद थे कि बच्चे हर सवाल का सही जवाब दे रहे हैं। अब उन्हें यह कौन समझाता कि हर सवाल का जवाब चार विकल्पों में से कोई एक होना ही था और आगे भी होगा।
सच को जानते हुए मुगालतों में जीना एक अलग ही खेल है। हम कथित बड़ों और तथाकथित समझदारों की दुनिया में भी मनोरंजक मुगालतों का कोई टोटा नहीं। इन्हीं में एक है हर चुनाव को ले कर होने वाले “पोल।” जो “ढोल की पोल” से ज़्यादा कुछ नहीं। यह और बात है कि इसी “पोल” की वजह से “ढोल” को गूंज नसीब होती है और भीड़ के हाथ-पैरों को थिरकने व मटकने का मौका। कभी घण्टे दो घण्टे को, तो कभी दो-चार दिन को। उसके बाद ढोल फिर खूंटी पर लटक जाता है। अगले कार्यक्रम तक के लिए।
सीधी-सपाट भाषा में कहूँ तो इस तरह के “पोल” सिवाय “टप्पेबाजी” के कुछ और नहीं। मतलब “लग जाए तो तीर, नहीं तो तुक्का” वाली पुरानी कहावत के नए नमूने। फिर चाहे वो प्री-पोल हो, एक्जिट पोल या ओपीनियन पोल। वैसे भी जहां “मन” को “चंद्रमा” की तरह “चंचल” माना जाता रहा हो, वहां किसी की राय की क्या विश्वसनीयता? “पल में तोला, पल में माशा” लोगों की भीड़ के बूते रचा जाने वाला एक तमाशा। पूरी तरह संदिग्ध और अवैज्ञानिक भी। संभव है कि आने वाले कल में पूरी तरह से “अवैधानिक” भी करार दे दिया जाए। जिसका संकेत सतत सुधार की ओर अग्रसर चुनाव आयोग इस बार दे भी चुका है। मतदान के अंतिम चरण की समाप्ति से पहले प्रसारण पर पाबंदी लगाते हुए। संभवतः आयोग जान चुका है कि यह एक “गेम” से अधिक कुछ नहीं। जिसका वास्ता आम मतदाताओं की मानसिकता को मनचाही दिशा में मोड़ने से है। वो भी करोड़ों के वारे-न्यारे करने की मंशा से। “आर्टीफीशियल इंटेलीजेन्सी” के दौर में लोगों को ठगने वाले “ऑनलाइन गेम्स” की तरह। जिन्हें विधिवत नान्यता न देने के बाद भी अमान्य घोषित करने का साहस “सिस्टम” में नहीं। क्योंकि उसके अपने हित इस “आंकड़ों की बाज़ीगरी” में निहित हैं। रहा सवाल “चैनली मीडिया” का, तो उसकी भूमिका “हाथ में उस्तरा लिए बैठे उद्दंड बंदर” सी होती जा रही है। चौबीस घण्टे “टीआरपी” के चक्कर में “घनचक्कर” मीडिया के लिए यह खेल बेहद रास आ रहा है। विषय और मुद्दों से दूर “हो-हल्ले की अंधी दौड़” में लगा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सच जानने के बाद भी इस कारोबार में बराबर का साझेदार है। कयोंकि उसे भी 24 घण्टे जनमानस को उलझाए रखने के लिए मसाला चाहिए। उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं, कि उसकी अपनी विश्वसनीयता लगातार खत्म होने की कगार पर आ पहुंची है। जो दुर्भाग्यपूर्ण भी है और शर्मनाक भी।
हर चार क़दम पर एक “भविष्यवक्ता” की मौजूदगी वाले मुल्क़ में न शातिरों की कमी है, न मूर्खों का अकाल। नतीज़तन इस तरह का धमाल लाज़मी है, जिसमें कमाल के नाम पर “कोरा बवाल” हो। वो भी आए दिन का। मंशा केवल मज़े लेने और टाइम-पास करने की। जो अपनी तरह का एक अलग धंधा बन चुका है। हज़ारों-लाखों की “शर्त” से लेकर करोड़ों-अरबों के “सट्टे” को बूम देने वाले “गोलमोल आंकड़ों” पर टिके “पोल का झोल” देश की आम जनता जितनी जल्दी समझ ले, उतना बेहतर होगा। लोकतंत्र और राष्ट्र, दोनों के हित में। समझा जाना चाहिए कि लाखों लोगों की भावनाओं को मुखर करने का माद्दा उन चंद सैकड़ा लोगों में नहीं हो सक़ता, जिन्हें कल्पनाओं के सौदागर “सेम्पल” का नाम देते हैं। सच्चाई यह है कि हर पग पर सियासी दलदल से गुज़रने वाली जनता अब किसी से पीछे नहीं। लोग अब सोचते कुछ हैं, बताते कुछ हैं और करते कुछ और ही हैं। ऐसे में आम आदमी की सोच और इरादे का अंदाज़ा लगा पाना उतना आसान नहीं, जितना कि ख़ुद को गणितज्ञ बताने वाले लोग मानते हैं।
बिना किसी लाग-लपेट चुनौतीपूर्वक कहा जा सक़ता है कि जनमत को पहले से परखने का खेल कतई भरोसे के लायक नहीं है। यह सच बार-बार साबित हुआ है और इस बार भी होगा। देख लीजिएगा 03 दिसम्बर 2023 (रविवार) को। जब लाखों की संख्या में “गर्भवती” बोटिंग-मशीनें चंद घण्टों में “प्रसूता” बन कर “जनादेश” को जन्म देंगी। जिनका स्वरूप “स्वयम्भू त्रिकालदर्शियों” की कपोत-कल्पनाओं से परे होगा। फिर शुरू होगा एक नया खेल। नतीजों को चौंकाने वाला बताते हुए अपने झूठ पर पर्दा डाले जाने का। झूठे-सच्चे तर्क और तथ्य परोसने का। मतलब, नज़र बचा कर “यू टर्न” लेने और “उगले को निगलने” का। “थूक कर चाटने” की तर्ज़ पर। जिसमें यह पूरी तरह से माहिर हो चुके हैं। तब चर्चा असली परिणाम के क़रीब रहने वाले किसी एक “पोल का पल्ला” पकड़ कर की जाएगी। झूठ के बाक़ी पुलंदों पर आरोप-प्रत्यारोप, तर्क-वितर्क की आंधी धूल डाल देगी। ताने-बानों से बनी चादर का एक कोना पकड़ कर पूर्वानुमान सच होने की डुग्गी पीटी छाएगी और आंखों में धूल झोंकने में पारंगत खिलाड़ी पाले बदल कर गोल करने का दम्भ भरते दिखाई देंगे।
जो इस सच से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते, उन्हें खुली चुनौती है। अगले साल “आम चुनाव” से पहले एक समूह बनाएं। एक साथ मिलकर केवल एक “पोल” सामने लाएं, ताकि “दूध का दूध और पानी का पानी” हो सके। यही फार्मूला झूठी-सच्ची भविष्यवाणी कर “पाखण्ड” की दुकान चलाने वाले उन लोगों पर भी लागू हो, जिनकी करतूतों के कारण ज्योतिष जैसी प्राचीन विद्या और उसके वास्तविक जाबकारों की साख पर बट्टा लगता आ रहा है। 6क्योंकि जब तक झूठ परोसने वालों का मुंह काला नहीं होगा, तब तक ज्ञान और चेतना का वो उजाला नहीं होगा, जो अब नितांत आवश्यक हो चुका है। पूर्ण विश्वास है कि आने वाले कल में कोई एक संयोगवश बेशक़ सच्चा सिद्ध हो जाए, बाक़ी तीन तो झूठे साबित होंगे ही। वो भी एक आंकड़े में बड़े अंतर वाली दो-दो संख्या ठूंसने के बाद। जैसे कि 45 से 60 के बीच, 110 से 140 के बीच टाइप। कुल मिला कर निवेदन इतना कि आंखें खोलें और ईव्हीएम खुलने दें। रहा सवाल कोरे मज़े लेने का, तो वो खूब लें। शौक़ से, आराम से। जय हिंद, जय भारत।।
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)