आलेख – प्रेम क्या है?
प्रेम…
सृष्टि के हर एक
जीव में पनपने वाला पौधा है। यह न छोटा बड़ा न जात-पात और न ही गरीब अमीर के धरातल को देखता है।यह बस हृदय रूपी खाद का रसपान करके प्रफुल्लित होता जाता है।
प्रेम का रूप परिवर्तन भी होता है यह नहीं की स्थिर रहेगा,यह जैसे जैसे नयी उम्र की दहलीज को छुएगा वैसे ही रूप बदलता जाएगा।
जैसे नवांकुर में यह ममता और खिलौनों में बढ़ेगा, फिर मित्रों के संग में शामिल होकर हंसेगा, उसके बाद यह आलिंगन और स्पर्श की अभिलाषा में बड़ा होगा जो अपना पूर्ण आकार लेने तक स्थिरता के साथ बढ़ता रहेगा, उसके बाद यह फिर से ममता, स्नेह में परिवर्तित हो जाएगा तथा अंत में पुण्यात्मा की धारणा में बंधकर स्वतंत्र यानी सर्वस्व स्वरूप में मुक्त हो जाएगा।
प्रेम निरंतर पनपता जाएगा।
प्रेम एक सागर जैसा है और दरिया की तरह भी….
जैसे ही यह पर्वतों से बहेगा दरिया बनकर शामिल फिर सबको लेता जाएगा क्योंकि यह आफताब की भांति सबके दिलों को अपनी ओर आकर्षित कर प्रकाशमान करता है, यह जहां से निकलेगा वहां अपना वजूद बनाता जाएगा।
यह सौन्दर्य है उस आलम्बंन का जहां क्षितिज पैदा होता है और आभास कराता है कि इससे बढ़कर कुछ नहीं जो बिल्कुल सत्य है।
यह जिस धरातल पर अंकुरित होता वहां वासना, स्वार्थ और आंतकवाद जैसी प्रवृत्ति को पनपने नहीं देता है।
इसलिए प्रेम सद्मार्ग और मोक्ष का द्वार है।