‘आलम-ए-वजूद
मैं अकेला था , अकेला रहना चाहता हूँ ,
ज़माने वाले मुझे अकेला जीने नहीं देते हैं ,
ज़ाती-सोच पर अपनी सोच हावी करते रहते हैं ,
भीड़ की सोच गलत को सही ठहराती रहती है ,
ज़ाती-सोच की सच्चाई हमेशा दबाई जाती है ,
मज़लूमों को दम-ब-दम खौफ़ज़दा किया जाता है ,
दौलत और रसूख़ के दम पर ज़मीर खरीदा जाता है,
बग़ावत की चिंगारी को उठते ही बुझा दिया जाता है,
फ़िक्र और दानिशमंदी कोरी क़िताबी बातें हो गई है ,
इंसानियत चंद हरर्फों में सिमट कर रह गई है ,
वक्त की गर्दिश में मेरा वजूद ग़ुम होकर रह गया है ,
हालातो के हाथों मा’ज़ूर होकर रह गया है ।