आलता महावर
रचना –3
चिंतन की कंदराओं में
सांझ जब जब ढलती है ।
ऊहापोह में डूबी साँसें
अंतर में तब जलती हैं।
हुई बैरन निंदिया क्यूँ
क्यूँ परित्याग हुआ मेरा।
किस विधिना वश दुरुह
जीवन अभिशप्त हुआ मेरा।
भीगी पलकों के संग भी
भीषण ज्वाला दहती है।
चिंतन की …..
बन जोगन जोग निभाऊँ
या भूलूँ जग के मोह को
निष्ठुर पिया भूले मुझको ,
होम करूँ इस जीवन को?
व्यंग से परिपूर्ण नज़रें
उठती,पल -पल चुभती हैं ।
चिंतन की ….
मूल्य साँसों का होता है
सुना यही करती थी ,
रूप सौंदर्य सब क्षणिक
वासना, मन छला करती थी।
कर्म नहीं चाम प्यारा रहा ,
उसाँसे भर याद करती है।
चिंतन की..
पाखी