आरोप लगा है आज चाँद पर
आरोप लगा है आज चाँद पर
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आरोप लगा है आज चाँद पर, लड़ी रात की उसे भा गयी।
भटका फिरता निरा अकेला
कर्तव्यों के मोढ़ों पर
रात चढ़े निर्जन राहों में
ऊँचे गिरि आरोहों पर,
निर्भयता इतनी आख़िर यह
चाँद कहाँ से लाया है?
या, प्रपंच की पूजा करता
सौतन को ले आया है?
उच्छृंखल नद की लहर मचलती, इस म्लेच्छ को रास आ गयी;
आरोप लगा है आज चाँद पर, गौर चाँदनी उसे भा गयी।
आमिषता के अहं पुजारी
जिसकी राहें ताक रहे
क्षुधित जानवर छिपकर दिन में
नामकोश को बाँच रहे,
छली चाँद, बादल संगति में
श्वेत नहीं हो सकता है
मुखड़ा उजला हो भी जाये
हृदय मलिन ही रहता है।
टेढ़े-मेढ़े इन आरोपों से, शकल चाँद की कुम्हला गयी;
आरोप लगा है आज चाँद पर, सुर्ख़ रश्मि अब उसे भा गयी।
असमंजसवश खड़ा शून्य में
शर्मसार, अभिशापित है
अपनों ने ही, ना पहचाना
कांति सृष्टि में व्यापित है,
मृत्युंजय ने शीश चढ़ा कर
रखा संयमित जिसे सदा
चंदा के अनुभूत समय की
उपजी कोई तुच्छ बदा।
अभिलाषा, चर्चित चंद्रवलय की, अर्धचंद्र को स्वयं खा गयी;
आरोप लगा है आज चाँद पर, तारक छवि ही उसे भा गयी।
…“निश्छल”