आरशोला का पाचन – तंत्र
मेरा उच्च विद्यालय सह शिक्षा के साथ बहु भाषीय भी था। हिंदी और बांग्ला दोनों माध्यमों से पढ़ाई होती थी।
वार्षिक परीक्षाफल दोनों माध्यमों के छात्र और छात्राओं के प्रदर्शन को सम्मिलित करके निकाला जाता था।
प्रश्न पत्र भी एक ही होता था। एक पृष्ठ पर बांग्ला में और दूसरे पर वही प्रश्न हिंदी भाषा में लिखे होते थे।
मुश्किल कभी कभी इस बात पर आती थी कि प्रश्न पत्र बनाने वाले शिक्षक सटीक हिंदी अनुवाद करने की जहमत नहीं उठाते थे।
आठवीं कक्षा में एक ऐसा ही प्रश्न मुँह बाए खड़ा था कि,
” आरशोला के पाचन – तंत्र का सचित्र वर्णन करो।”
पूरे १२ अंको का ये प्रश्न देखते ही धड़कन बढ़ने लगी। मैंने इधर उधर मेरे माध्यम के छात्रों पर नज़र दौड़ाई और इशारों इशारों में पूछा, ये क्या है? वो भी मेरी तरह परेशान दिखे।
बड़ी हिम्मत करके , हमारी निगरानी को नियुक्त बांग्ला भाषी भूगोल के शिक्षक से पूछा कि ” सर, ये क्या है? ये प्रश्न तो हमारे पाठ्यक्रम में है ही नहीं।
शिक्षक ने उत्तर दिया, ये कैसे हो सकता है, फिर उन्होंने बांग्ला माध्यम के विद्यार्थियों से पूछा , तो उन्होंने जवाब दिया कि ये प्रश्न पाठ्यक्रम से ही है।
अब शिक्षक मेरी तरफ देख कर बोले, “ठीक से नहीं पढोगे तो सब प्रश्न ही पाठ्यक्रम से बाहर नज़र आएंगे।
तब तक हमारे विज्ञान के अध्यापक को भी “आरशोला” की खबर हो चुकी थी, वो फौरन आये और कहा कि प्रश्न संख्या 2 में
“आरशोला” की जगह “तिलचट्टा” लिखो।
ये सुनते ही हमारी जान मे जान आयी और जीव विज्ञान की पुस्तक के पृष्ठ २५ और २६ आंखों के आगे साफ दिखाई देने लगे थे।
पर मेरे मझले भाई, कुछ वर्षों पहले इस मामले में इतने भाग्यशाली नहीं रहे।” निनाल” की प्रक्रिया को पूरी तरह रटने के बाद भी जब प्रश्न ” साइफन” पर अटका रहा, तो वो इसे अनुत्तरित ही छोड आये थे।
इसी तरह कभी “चूहा” और ‘इंदुर” ने एक दूसरे को अजनबी निगाहों से देखा तो कभी “बिल्ली” और “बेड़ाल” आपस में दौड़ते वक़्त टकरा गई।
धीरे धीरे हम इसके आदी और साथ ही साथ सहज भी होते जा रहे रहे थे।
ऐसे ही एक दिन ट्यूशन क्लास में टीचर ने ३ ग़ज़ लंबे और “फांपा” बांस का घनत्त्व निकालने को कहा, तो मैंने पूछा “सर, “फांपा” मतलब “खोखला” तो? टीचर ने हाँ कहा।
क्लास से निकलते ही मेरे सहपाठी ने पूछा ” एई खोखला टा आबार की?(अब ये खोखला क्या बला है)
मैंने कहा , “खोखला ” फांपा”र माशीर छेले आछे,पाटनाये थाके( खोखला , फांपा की मौसी का लड़का है,पटना में रहता है)
ये बोलकर हम दोनों हंस पड़े।
फिर एक दिन हम एक दूसरे गांव में क्रिकेट मैच खेलने गए ,प्रतिपक्षी टीम जब हमारे जलपान की व्यवस्था कर रही थी,
मेरा एक साथी आकर धीरे से बोला “तुम तो निरामिष है, तुमको जब “डिम”(अंडा) देंगे तो “माना”(मना) मत करना, वो हम खा लूँगा, तुम चाहो तो हामारा मिष्टी( मिठाई) ले सकते हो”
मैंने मुस्कुराते हुए हाँ कह दिया।
भाषायें और लोग शुरुआती हिचकिचाहट के बाद अब परस्पर घुलने मिलने लगे थे।