‘आरक्षितयुग’
आरक्षितयुग
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सुन जनता,ज्ञान जरूरी नहीं;
ये बात, निज विधान ने कही।
जाति- धर्म, ज्ञान पर है भारी;
विद्वान, अज्ञानी का आभारी।
ज्ञानी पे , राज करता अज्ञानी;
योग्यता शर्म से है पानी-पानी।
शिक्षा से शक्तिशाली है,भिक्षा;
नाम का है, अंक और परीक्षा।
जाति व धर्म का, जिसे सहारा;
उड़ाते हिंददेश का, माल सारा।
जैसे, सागर में बढ़े खारा पानी;
वैसे ही बढ़ रहा, यहां अज्ञानी।
बस आरक्षण का,देते वो नारा;
शिक्षा व ज्ञान से, करे किनारा।
पूर्व आपबीती का, देकर दुहाई;
मुफ्त में खाते सब, खूब मलाई।
निज भविष्य हेतु, क्यों घबराना;
आराम से ‘जन’, संख्या बढ़ाना।
कलयुग की, हिन्द से हुई विदाई;
आरक्षितयुग ने निज पैर जमाई।
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स्वरचित सह मौलिक
पंकज ‘कर्ण’
कटिहार।
दिनांक:१४-६-२०२४