आयी थी खुशियाँ, जिस दरवाजे से होकर, हाँ बैठी हूँ उसी दहलीज़ पर, रुसवा अपनों से मैं होकर।
आयी थी खुशियाँ, जिस दरवाजे से होकर,
हाँ बैठी हूँ उसी दहलीज़ पर, रुसवा अपनों से मैं होकर।
कदम उठते थे जिसके, सिर्फ उँगलियाँ मेरी धड़कर,
देखा नहीं एक बार भी, उसने मुझे पलटकर।
रातें होती नहीं थी जिसकी, लोरियां मेरी सुनकर,
त्याग जाता है वो मुझको, दर्द में कराहता देखकर।
आँखें भर आतीं थी, हर बार जिसके पालने को सजाकर,
वो कहता है, “रख सकता नहीं मैं तुझे, कोने में यूँ बिठाकर।”
हो जाती थी मैं जिन्दा, जिस हँसीं पर उम्र अपनी वारकर,
उसने हीं मृत्यु दे दी, उपेक्षा के सागर में मुझे डुबोकर।
जिसके सपने करती थी पुरे, क़र्ज़ के बोझ में दबकर,
फेर लीं उसने हीं नज़रें, बिना काम की चीज़ मुझे समझकर।
सवाल मैंने भी किये थे, आंसूं आँखों में अपनी भरकर,
“सारे माँ-बाप तो करते हैं ये, क्या नया किया है तूने?” ये ज़बाब दिया उसने हंसकर।
आज बैठी हूँ इस दलान पर, अपना सबकुछ लुटाकर,
कभी सिमटी सी पहुंची थी, जहाँ मैं दुल्हन बनकर।