आम आदमी
आम आदमी
चूसा जाता है
आम की तरह
नये क़ानून के नाम पर
नयी व्यवस्था के नाम पर
रोज़ मंहगाई के नाम पर
उधड़ जाती है खाल इसकी
छिलके की तरह
दिन रात ज़रूरतें बटोरते
निचुड़ जाता है इसका
खून पसीना सब
गूदा रस जैसे
परिवार पेट पालने में
फ़िर फेंक दिया जाता है
समझकर बेकार
हर बार
गुठली की तरह
समाज के ढेर पर
परन्तु इसकी बेशर्मी तो देखो
ये पुनः उग आता है
बिन खाद पानी दिये
भगवान की कृपा से
नयी फसल लेकर
नया नसीब लेकर