आफताब ए मौसिकी : स्व मोहम्मद रफी साहब
इंसान था वह या था युसूफ जमाल जैसे,
माहताब ज़मीं पर उतर आया हो जैसे।
हाजी था, नमाजी था थी खुदा सी शक्ल ,
जन्नत से कोई फरिश्ता उतर आया जैसे।
मौसीक़ी ही थी उसकी सबसे बड़ी दौलत ,
उसका दीन -ओ ईमान वही हो जैसे।
आवाज़ थी शरबती औ गुलों सी रंगीली ,
जज़्बातों के तमाम रंगों में ढली हो जैसे।
इंसानियत जिसका मजहब-ओ -इबादत ,
कहाँ मिलेगा ऐसा उम्दा इंसान रफ़ी था जैसे।
तभी रोइ थी खुदाई भी उसकी जुदाई पर,
ऑंसुओ की बरसात पलकों से छलकी जैसे।
आता रहेगा रमजान का महीना ईद भी ,
मगर उसके बिना सब फिका हो जैसे ।
यह माह ए जन्मदिन उसका २४ दिसंबर ,
तसव्वुर में आते ही वो अश्कों में घुल जाए जैसे।
जीने की आदत तो डाल ली उसके बिना ,
मगर उसके बिना जिस्त अधूरी हो जैसे ।
मगर करें भी क्या खुदा के आगे मजबूर है,
हम तो उसके आगे बस खिलौना है जैसे ।
अब तो बस इतनी ही हमारी आरजू है “अनु”,
मौसिकी के आकाश में चमकता रहे आफताब जैसे।