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7 Dec 2021 · 1 min read

आफताब ए मौसिकी : स्व मोहम्मद रफी साहब

इंसान था वह या था युसूफ जमाल जैसे,
माहताब ज़मीं पर उतर आया हो जैसे।

हाजी था, नमाजी था थी खुदा सी शक्ल ,
जन्नत से कोई फरिश्ता उतर आया जैसे।

मौसीक़ी ही थी उसकी सबसे बड़ी दौलत ,
उसका दीन -ओ ईमान वही हो जैसे।

आवाज़ थी शरबती औ गुलों सी रंगीली ,
जज़्बातों के तमाम रंगों में ढली हो जैसे।

इंसानियत जिसका मजहब-ओ -इबादत ,
कहाँ मिलेगा ऐसा उम्दा इंसान रफ़ी था जैसे।

तभी रोइ थी खुदाई भी उसकी जुदाई पर,
ऑंसुओ की बरसात पलकों से छलकी जैसे।

आता रहेगा रमजान का महीना ईद भी ,
मगर उसके बिना सब फिका हो जैसे ।

यह माह ए जन्मदिन उसका २४ दिसंबर ,
तसव्वुर में आते ही वो अश्कों में घुल जाए जैसे।

जीने की आदत तो डाल ली उसके बिना ,
मगर उसके बिना जिस्त अधूरी हो जैसे ।

मगर करें भी क्या खुदा के आगे मजबूर है,
हम तो उसके आगे बस खिलौना है जैसे ।

अब तो बस इतनी ही हमारी आरजू है “अनु”,
मौसिकी के आकाश में चमकता रहे आफताब जैसे।

1 Like · 2 Comments · 364 Views
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