आफताबे रौशनी मेरे घर आती नहीं।
पेश है पूरी ग़ज़ल…
ना जाने क्यूं आफताबे रोशनी मेरे घर आती नही।
जिन्दगी की दीवारों से दर्द की सीलन जाती नही।।1।।
महताब ने भी मुंह फेर लिया है मेरे घर आंगन से।
चिरागों के सहारे ये अंधेरी जिंदगी जी जाती नहीं।।2।।
सबसे ही अल्हदा हो गए है कैसे जिए ये जिंदगी।
मेरी ज़ख्मी रूह पल भर को भी सुकूँ पाती नही।।3।।
जाने नींदे कहां गुमशुदा हो गई है मेरी आंखों से।
गमो भरी शब कैसे गुजरेगी सहर भी आती नही।।4।।
हर बशर पे ही निगहबानियां है नज़रे यज़्दाँ की।
शनासा हो के भी इंसानी आदतें रुक पाती नहीं।।5।।
हम किससे कहे जाके जो तड़प है जिन्दगी की।
दर्द से भरी सांसे धड़कने दिल को चलाती नहीं।।6।।
ताज मोहम्मद
लखनऊ