आप अपने हो मेरे दिल को जलाते क्यूँ हो
आप अपने हो मेरे दिल को जलाते क्यूँ हो
पास आते भी नहीं इतना सताते क्यूँ हो
है कोई बात अगर हम से छिपाते क्यूँ हो
ख़ुद भी रोकर के हमें और रुलाते क्यूँ हो
दूर जाना था अगर पास बुलाते क्यूँ हो
तिश्नगी इश्क़ की हर बार बढ़ाते क्यूँ हो
जबकि मालूम है ताबीर नहीं हो सकती
फ़िर उसी ख़्वाब को पलकों पे सजाते क्यूँ हो
मयक़दा जाम नहीं और न साक़ी है कोई
जाम आँखों से हमें आप पिलाते क्यूँ हो
कर के वादा न निभाते हो न आते हो सनम
इस तरह दिल को मेरे रोज़ दुखाते क्यूँ हो
क्या शिकायत ज़रा हमको बताओ तो कभी
यूँ जला दीप मुहब्बत का बुझाते क्यूँ हो
सादगी चीज़ बड़ी है न अना ये बेहतर
सर न झुक जाए कहीं सर को उठाते क्यूँ हो
दिल के सहरा में समुन्दर न कोई दरिया है
प्यास ‘आनन्द’ मुहब्बत की लगाते क्यूँ हो
– डॉ आनन्द किशोर