आप्रवासी उवाच
“आप्रवासी उवाच”
उसने शहर को छोड़ा या शहर ने उसको, ये बहस की बात होगी,
पर एक बात, तो हर हाल में तय है, अपनाया दोनों ने नहीं था
घर की जगह जब मकानों ने ली, पैसा कमाने वो शहर चल दिया,
बंट गई मां की ममता, बाप का प्यार, पर जताया दोनों ने नहीं था
शहर और शहरियों ने, उसे पनाह तो दी थी, मगर अपनी शर्तों पे,
मुर्गियों से बदतर होंगे इंसानी दड़बे, ये बताया दोनों ने नहीं था
सुबह शुरू तो होती थी उम्मीद से, हर शाम टूट कर ही ढलती थी,
इधर घर में भी थी, लाख दुश्वारियां, पर दिखाया दोनों ने नहीं था
आया तो वो इंसान था, बदलते हालातों ने कठपुतली बना दिया,
मुकद्दर का खेल कहें या समय का फेर, नचाया दोनों ने नहीं था
बेहतरी की जगह जाने कब हुशियारी ने लेली, पता ही नहीं चला,
पैसों की धुरी पर घूमता सपनों का संसार, बसाया दोनों ने नहीं था
नौकरी तब होती थी मालिक से और मालिक भी होते थे चाकरों के,
हर तरफ फैला, ठेकेदारी का ये बाज़ार, सजाया दोनों ने नहीं था
तरक्की के कुछ उसूल भी हुआ करते हैं, हम सभी ये भूल गए,
मौकापरस्ती है ब्योपार, ये सबक तो समझाया दोनों ने नहीं था
अजीब आलम है अब, न वो रहा यहां का, ना ही वहां का रह पाया,
होगी इन हालातों में उसकी घर वापसी, ये सोचा दोनों ने नहीं था
उसने शहर को छोड़ा या शहर ने उसको, ये बहस की बात होगी,
पर एक बात, तो हर हाल में तय है, अपनाया दोनों ने नहीं था
~ नितिन जोधपुरी “छीण”