आपदाओं के बीच जीए गये ये दसक!
जनवरी से लेकर दिसंबर का अंतराल,
बीतते गए साल दर साल,
होती रही है वर्ष भर ऐसी हलचल,
एक ऐसा सच अविचल अटल।
कनोडिया गाड़ की झील से लेकर,(उत्तरकाशी में बनी ७८की झील)
रैणी गांव के निकट टूटते ग्लेशियर तक,(चमोली में घटित हुई घटना)
केदारनाथ में जलप्रपात का विध्वंश
हर बार बाढ़ की विभीषिका का दंश,
झेलते रहे हैं आपदाएं निर्शंस।
पहाड़ चाहे मालपा का टूटा हो,
या हाल फिलहाल रैणी गांव का,
जाने तो गई है बेखबर इंसानों की,
या फिर निरपराध जंगली जानवरों की।
हासिल क्या किया है इससे हमने,
कुछ बिजली कंपनियों की टरनलें,
या कुछ लोगों की जीविका के लिए काम,
या फिर खेत खलिहानों का लगाते दाम।
आज आम हो गया यह दावा,
विकास के लिए कर रहे हैं छलावा,
कितनी सरकारें आईं और चली गई,
ना गई तो इनकी रवायतें नहीं गई।
दिखाते रहे हर बार सपने पर सपना,
खुशहाल होगा हर नागरिक अपना,
लेकिन यहां तो जान के लाले पड़ गए हैं,
हम तो बस अभी तक अपनी किस्मत से जी रहे हैं।
वर्ना कब आ जाए कोई भीषण आपदा,
हम नहीं जानते,
कब आ जाए कोई बड़ा सा भूकंप,हम नहीं जानते,
कब दरक जाए कोई ग्लेशियर हम नहीं जानते,
कब टूट जाए कोई पहाड़ हम नहीं जानते,
कब आ जाएं नदियां उफान पर हम नहीं जानते,
कब बन जाएं बनों की आग बिकराल हम नहीं जानते।
बस इतना ही जान पाए हैं हम,
ये सभी घटनाएं हर साल दर साल,
अपना रौद्र रूप दिखाते रहते हैं,
कभी पहाड़ के टूटने पर,
कभी ग्लेशियर के खिसकने पर,
कभी डोलती धरती पर,
कभी उफनती बाढ़ पर,
कभी बादलों का फटना,
कभी पहाड़ों का दरकना,
कभी शीत का प्रबल रूप,
कभी बर्षा का बदलता स्वरूप,
कभी तपता भू-मंडल,
आता रहा है अदल बदल।
यह देखते देखते निकल गये चार दसक,
युवा वस्था से प्रौढ़ावस्था तक की ठसक,
और अब संन्यास की दहलीज पर की कसक,
सब कुछ चलता रहा अनवरत,
कभी कभी मिले भी हैं सुकून के कुछ पल,
दिल को गुदगुदाने की लिए हसरत,
कुछ ना कुछ होता रहा,
गुदगुदाने से लेकर,
बुदबुदाने तक
अधिकतर समय हम जूझते ही रहे,
प्राकृतिक आपदाओं से लेकर,
सामान्य ज्वर से होकर कोरोना की महामारी तक।