आध्यात्म गीत-व्यापक हूं आकाश समाना…
अमृत रूपी ज्ञान हूं, आत्म जनित सुप्रकाश।
व्यापक हूं सर्वत्र मैं, समरस ज्यों आकाश।।१।।
हूं मैं अजन्मा कारण हीना।
मैं निर्धूमा मैं मलहीना।।
बिन दीपक प्रकाश है मेरा।
यत्र तत्र सर्वत्र बसेरा।।
समरस अमृत रूपी ज्ञाना।
व्यापक हूं आकाश समाना।।१।।
हूॅं निस्काम काम कहुं कैसे।
मैं नि:संग संग रहूं कैसे।।
समरस अमृत रूपी ज्ञाना।
व्यापक हूं आकाश समाना।।२।।
न अद्वेत न द्वेत प्रपंचा।
न हि नित्य अनित्य प्रपंचा।।
समरस अमृत रूपी ज्ञाना।
व्यापक हूं आकाश समाना।।३।।
न स्थूल न सूक्ष्म आत्मा।
गमना-गमन विहीन आत्मा।।
ये आदि-मध्य-अंत सब हीना।
अमृत रूपी ज्ञान प्रवीना।।
न मैं परा न अपरा रूपा।
तत्व एक परमार्थ स्वरुपा।।
समरस अमृत रूपी ज्ञाना।
व्यापक हूं आकाश समाना।।४।।
आकाश तुल्य इंद्रिय सकल, विषय तुल्य आकाश।
शुद्ध शून्य है आत्मा, बंधन-मुक्ति न पाश।।५।।
मैं दुर्वोध न जाने कोई।
हूॅं दुर्लक्ष लखे न कोई।।
रहूं समीप छुपाऊं नाहीं।
ढूंढ न पाय मुझे जग माहीं।।६।।
कर्म रहित दुख रहित अरु देह रहित
भस्म करन धरी अग्नि रूपा।