#आध्यात्मिक_रचना-
#कविता-
■ कोई तो है…।।
【प्रणय प्रभात】
“कोई तो है”-
जिसने व्यापक नभ रच टांगे,
जगमग सूरज, चांद, सितारे।
जिसने भव्य विराट धरा रच,
सरिता, भूधर, उदधि उतारे।।
जिसने वृक्ष, लताएं, झाड़ी,
जिसने विविध अनाज बनाए।
उनमें भर कर दिव्य गुणों को,
अमृत-तुल्य पदार्थ थमाए।।
रस, सुगंध, मधु भरा पुष्प में,
जीव, कीट अनगिनत बनाए।
लख चौरासी योनि सृजित कर,
कोटि-कोटि मानव उपजाए।।
जिसने नीर भरा मेघों में,
जिसने सौंपा वेग पवन को।
तृप्ति भरी जल बिंदु-बिंदु में,
दीं अपार शक्तियां अगन को।।
जिसने सागर के पग बांधे,
कलकल नाद दिया निर्झर को।
बल गुरुत्व देकर वसुधा को,
स्थिर बना दिया अम्बर को।।
जिसने तेज भरा दिनकर में,
शीतलता शशि को दे डाली।
पिंड, पुंज, नक्षत्र अनगिनत,
अंतरिक्ष की भर दी थाली।।
एक नहीं ब्रह्मांड अनेकों,
अमित, अनंत व्योम-गंगाएं,
सप्तलोक निर्मित कर दे दीं,
कवच सरीखी दसों दिशाएं।।
सुबह, दोपहर, सांझ, रात रच,
जिसने आठ याम दे डाले।
पंच-तत्व आधार बना कर,
सबको पृथक काम दे डाले।।
क्षीर पयोधर में भर कर के,
जीवन को आधार दे दिया।
पंच-गव्य से तत्व-रूप में,
शुचिता का भंडार दे दिया।।
जो मध्य अचेतन-चेतन के,
अवचेतन करता है मन को।
भरता है नवल रहस्यों से,
नित जन्म-मरण से जीवन को।।
जो विगत जन्म की स्मृति दे,
आगत का बोध कराता है।
वामन में भर कर के विराट,
हतप्रभ प्रायः कर जाता है।।
उंगल-उंगल के पृथक चिह्न,
दृग-दृग के मध्य रखा अंतर।
अनुमान लगाए क्या कोई,
वो स्वयं एक जंतर-मंतर।।
जिसने माटी के पुतलों में,
सकल जगत का ज्ञान भर दिया।
मन को
युगों-युगों के लिए मृदा को,
उर्वरता से पूर्ण कर दिया।।
लौकिक और अलैकिक जग में,
जिसने लाखों रंग भरे हैं।
रत्न-प्रसूता खानों भीतर,
भांति-भांति के रत्न धरे हैं।।
तीन मौसमों छह ऋतुओं को,
समयोचित अस्तित्व दिया है,
धूप-छांव, बारिश, प्रकाश या
नहीं हवा का मोल लिया है।।
थान रेशमी कीटों भीतर,
फूलों बीच कपास भर दिया।
जड़ी-बूटियों में औषधि भर,
तृण तक को उपहार कर दिया।।
ज्ञान इंद्रियां कर्म इंद्रियां,
साथ छठी इंद्री रच डाली।
आकर्षण के संग विकर्षण,
सम्मोहन की शक्ति निराली।।
हर्ष-विषाद, निराशा-आशा,
सुख-दु:ख जैसे भाव बनाए।
सत-रज-तम गुण तीन बना कर,
जाने कितने भाव जगाए।।
कोटि कोटि के जंतु-जीव,
तो कौटिश कीट-पतंगे।
वर्ण-वर्ण के जलचर-थलचर,
नभचर रंग-बिरंगे।।
खारे सागर मीठी नदियां,
झरने-झील सुहावन।
सुरभित सुमन, सुवासित चंदन,
युगों-युगों से पावन।।
सांसें, धड़कन, रक्त-वेग
अरु नाड़ी का स्पंदन।
मिल समवेत स्वरों में करते,
जीवन का अभिनंदन।।
प्राणवान कण्ठों को वाणी,
नाद दिया तत्वों को।
फल-फूलों, शाखों-पातों में,
समा दिया सत्वों को।।
कोई तो बतलाए आ कर,
क्यों ना उस को मानें?
जिसने पग को गति देकर,
पंखों में भरी उड़ानें।।
हाड़-मांस, मज्जा वाले,
तन भर दीं विविध कलाएं।
मद-मर्दन को संग लगा दीं,
व्याधि, विकार, बालाएं।।
प्राणहीन शंखों को गूंजें,
रसना उच्चारण को।
मर्म दिया मानस को जिसने,
धर्म दिया धारण को।।
जो गर्भस्थ निरीह जीव को,
देता क्रमिक विकास रहा है।
सुख की वृष्टि जीव-हित कर,
दु:ख में देता विश्वास रहा है।।
जिसने नश्वर देह बना कर,
आत्म-अंश का वास दिया है।
शब्द, रूप, रस, गन्ध और
स्पर्शों का आभास दिया है।।
जिसके लघु में विद्यमान गुरु,
दोनों में गुण भरे पड़े हैं।
जिसकी खींची रेखा बाहर,
मूक ज्ञान-विज्ञान खड़े हैं।।
उपनिषदों ने जिसे भजा है,
जिसकी बतलाई माया है।
जिसे पुराण बखान रहे हैं, जिसको वेदों ने गाया है।।
जो अनादि है जो अनंत है,
सकल सृष्टि का रखवाला है।
जो कल में था जो अब में है,
जो कल में रहने वाला है।।
जग कहता है कोई तो है,
मैं कहता हूँ-“वो” ही तो है।।
मैं कहता हूँ-“वो” ही तो है।।
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-सम्पादक-
●न्यूज़&व्यूज़●
(मध्य-प्रदेश)