आधुनिक समाज …..
आधुनिक समाज …..
उफ्फ !
ये कैसी आधुनिकता है
जिसमें हर पल संस्कारों का दम घुट रहा है
हर तरफ एक क्रंदन है
सभ्यता आज कितनी असभ्य हो गयी है
आज हर गली हर चौराहे पर शालीनता
अपनी सभी मर्यादाओं की सीमाएं तोड़कर
शिष्टाचार की धज्जियां उड़ा रही है
बदन का सार्वजनिक प्रदर्शन
आधुनिकता का अंग बन गया है
आज घर नाम की शब्द शर्मसार है
हर रिश्ते का अर्थ बदल गया है
खून के रिश्ते भी बदनाम होने लगे हैं
जिन बातों से शिष्ट समाज शिष्ट परिवार
शिष्ट सम्बन्धों का निर्माण होता था
आज उनका रसातल तक अवमूल्यन हो गया है
आज नारी को विज्ञापन बना दिया है
विकृत दृष्टि ने नारी की लाज़ को
तार तार कर दिया है
आज माँ – बाप के हाथ आशीर्वाद को तरसते हैं
भाई बहन स्नेह को तरसते हैं
क्या यही आधुनिक शिष्ट समाज है ?
बदलती परिस्थतियों में बदलाव आवश्यक है
लेकिन मर्यादाओं के उल्लंघन पर नहीं
आधुनिकता समय के साथ आगे बढ़ने का बिगुल है
लेकिन
अपने संस्कारों की बलि चढ़ा कर नहीं
शिष्टाचार के संस्कार एक शिष्ट समाज की
सिर्फ आधारशिला ही नहीं
बल्कि
एक स्वर्णिम भविष्य का द्वार है
सुशील सरना/