आधुनिक समय पर श्रीमद्भगवद्गीता की कर्मफल व्यवस्था : भागो नहीं अपितु लडो (Karmphal system of Srimad Bhagavad Gita in modern times: Do not run but fight)
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:!
मामका: पांडवाश्च किम् कुर्वत् संजय!!
यह श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम श्लोक है! इसमें धृतराष्ट्र ने संजय से यह पूछा है कि युद्धभूमि पर लडने के लिये उत्सुक मेरे और पांडू के पुत्रों ने क्या किया?
यहाँ पर धृतराष्ट्र ने युद्धभूमि को धर्मक्षेत्र कहा है,अधर्म क्षेत्र नहीं!यहाँ पर धृतराष्ट्र ने युद्धभूमि को पुण्यभूमि कहा है, पापक्षेत्र नहीं! यहाँ पर धृतराष्ट्र ने युद्धभूमि को हिंसाभूमि नहीं अपितु न्याय क्षेत्र कहा है! गांधीजी की तरह इस श्लोक को तोडमरोडकर इसका कोई भी अहिंसापरक या करुणापरक या अध्यात्मपरक अर्थ निकाल लो! लेकिन इससे अधर्म, अन्याय,अव्यवस्था आदि से त्रस्त जनमानस की पीड़ा और विरोध को झुठलाया नहीं जा सकता है!माना कि जुल्म और अत्याचार के खात्मे के लिये युद्ध कोई प्रथम और आवश्यक विकल्प नहीं है, लेकिन जब पानी सिर से ऊपर चला जाये तो युद्ध ही एकमात्र विकल्प बचता है! माना कि युद्ध से हिंसा,नरसंहार,विनाश, पर्यावरण प्रदूषण आदि होकर प्राकृतिक/आध्यात्मिक संतुलन बिगड़ जाता है, लेकिन दूसरी तरफ अंतिम विकल्प के रूप में प्राकृतिक/आध्यात्मिक संतुलन को बनाये रखने के लिये ही युद्ध आवश्यक हो जाता!यह कतई आवश्यक नहीं
कि वह युद्ध विनाशकारी हथियारों के बल पर ही हो! वह युद्ध विरोध/असहमति/धरना/प्रदर्शन/असहयोग आदि के रूप में भी हो सकता है! गांधीजी ने युद्ध के इसी पहलू पर जोर दिया था! इस पहलू से भी हिंसा होती है लेकिन वह हिंसा थोड़ा सुक्ष्म तल पर होती है! इस सूक्ष्म तल वाली हिंसा को अधिकांश जनमानस समझ नहीं पाता है तथा केवल तीर कमान, तलवार, भाले, बम, मिसाइल, फाईटर विमानों वाली हिंसा को ही हिंसा समझने की भूल कर बैठता है!
जब किसी योग्य, मेहनतकश, प्रतिभाशाली व्यक्ति को अव्यवस्था के कारण भौतिक संसार में किये हुये कर्मों का फल नहीं मिले तो उसे क्या करना चाहिये? श्रीमद्भगवद्गीता इस संबंध में क्या कहती है?क्या उसे केवल भाग्य का खेल मानकर चुप बैठ जाना चाहिये? ‘भाग्य में होता तो मिल जाता’ -क्या उसे यह स्वीकार करके अव्यवस्था के विरोध में कोई आवाज़ नहीं उठाना चाहिये? ‘सफलता मेरे भाग्य में नहीं है’- क्या यह कर्मयोग के अंतर्गत पुरुषार्थ करने को हतोत्साहित करना तो नहीं है? और फिर किसी को यह कैसे मालूम हो सकता है कि उसके भाग्य में क्या है?क्या कोई निश्चित रूप से इस संबंध में दावा कर सकता है?
ध्यान रहे कि भौतिक संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है! भौतिक संसार में यदि पुरुषार्थ करने के बाद भी यदि सफलता नहीं मिलती है तो इसके लिये भाग्य नहीं अपितु उस -उस राष्ट्र में व्याप्त अव्यवस्था और भ्रष्टाचार जिम्मेदार होते हैं!धर्मगुरु, मौलवी, ग्रंथी, पादरी,भिक्षु आदि सृष्टि की आध्यात्मिक व्यवस्था को बीच में लाकर केवल पूंजीपतियों, अमीर घरानों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और नेताओं की लूटखसोट की ढाल बनने का काम करते हैं! होना तो यह चाहिये था कि धर्म और अध्यात्म जगत् के लोग किसी भी राष्ट्र में व्याप्त अन्याय,विषमता, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का विरोध करके मेहनतकश जनमानस को उसके कर्मों का उचित पारिश्रमिक दिलवाने के लिये आवाज उठाते! लेकिन संसार में कहीं भी ऐसा नहीं हो रहा है!मजहबी क्षेत्र के तथाकथित धर्मगुरु लोग मेहनतकश जनमानस को भाग्य के जाल में उलझाये रखते हैं ताकि वह पूंजीपतियों, अमीर घरानों, नेताओं और उच्च -अधिकारियों द्वारा की जाने वाली लूटखसोट और अय्याशी को सेफ जोन उपलब्ध हो सके!सच यही है!
क्या किसी ने कभी विभिन्न मजहबों के धर्मगुरुओं को राष्ट्र में व्याप्त बेरोजगारी, बदहाली, अभाव, गरीबी, अव्यवस्था, अन्याय, अशिक्षा को समाप्त करने के लिये सडकों पर धरना प्रदर्शन करते हुये देखा है? ऐसा कभी नहीं होता है! एक तरफ तो ये मजहबी धर्माचार्य लोग पूंजीपतियों की लूटखसोट, धींगामस्ती भ्रष्टाचार और अय्याशी के लिये माहौल तैयार करते हैं तो दूसरी तरफ उपरोक्त के फलस्वरूप उत्पन्न भूखमरी और बिमारी को मिटाने के लिये मुफ्त भोजन और चिकित्सा की व्यवस्था करने का ढोंग करते हैं! यह अपने कुकर्मों और पापों पर पर्दा डालना है! यदि इन तथाकथित धर्माचार्यों में थोड़ी भी हिम्मत, नैतिकता, धार्मिकता और करुणा बची है तो देश -विदेश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अव्यवस्था, अन्याय, अधर्म, अनैतिकता, जुल्म, तानाशाही और कानून की आड़ में की जाने वाली धींगामस्ती के विरोध में सडकों पर विरोध करके दिखलायें!
लूटेरी बहुराष्ट्रीय कंपनियों, शोषक पूंजीपतियों,स्वार्थी अमीर घरानों और धूर्त नेताओं की मदद करके पहले तो मेहनतकश जनमानस को भूख और बिमारियों से ग्रस्त किया जाता है! और फिर मानवता की सेवा के नाम पर भोजन और चिकित्सा के शिविर लगाये जाते हैं! रात के अंधेरे में सडक पर पानी डालकर कीचड़ कर देते हैं और दिन में वहाँ पर फंसने वाली गाडियों को निकालने के लिये क्रेन की व्यवस्था करके दौलत कमाते हैं! इनकी इस धूर्तता को क्या नाम दें? इनके अनुसार अमीर लोग अपने भाग्य के कारण अमीर हैं तथा मेहनतकश,गरीब, बेरोजगार,बिमार लोग अपने भाग्य के कारण इस दयनीय हालत में हैं!
सच मानिये कि सनातन धर्म और संस्कृति के पुरातन ग्रंथों में ऐसा कहीं भी नहीं कहा गया है! वेद तो यहाँ तक कहता है कि मेरे एक हाथ में पुरुषार्थ है तो दूसरे हाथ में सफलता है!
अथर्ववेद में आता है कि ‘कृतं मे दक्षिणे हस्तो जयो मे सव्य आहित’ अर्थात् मेरे दायें हाथ में कर्म है और बायें हाथ में सफलता!महाभारत के युद्ध में पांडव अपने साथ हो रहे अधर्म, अन्याय और अव्यवस्था को अपना भाग्य मानकर चुप नहीं बैठ गये थे, अपितु उन्होंने शांति के सभी मार्ग बंद हो जाने पर युद्ध के मार्ग को चुना था! आजकल का कोई भी साधु, महात्मा ,संत, कथाकार, ज्योतिषी,फादर, मौलवी, ग्रंथी, भिक्षु जनमानस को इसकी सीख नहीं देता है कि यदि भौतिक क्षेत्र में कोई भेदभाव, विषमता, अन्याय, बेरोजगारी,भ्रष्टाचार, अशिक्षा, बिमारी, बदहाली आदि होने पर सिस्टम के विरोध में संघर्ष करो!लडाई लडो! युद्ध करो! धरने प्रदर्शन करो! भूख हड़ताल करो!ये तथाकथित सारे धर्म और अध्यात्म के पहरेदार अमीर घरानों, पूंजीपतियों, कोरपोरेट्स, नेताओं और भ्रष्टाचारियों के साथ खड़े दिखाई देते हैं!लेकिन सर्व ज्ञान विज्ञान का आदि मूल वेद और श्रीमद्भगवद्गीता जैसा कालजयी ग्रंथ तो अधर्म, अन्याय, अव्यवस्था अनैतिकता, भ्रष्टाचरण के विनाश के लिये युद्ध करने तक का उपदेश करते हैं!
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्!
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन!!
अर्थात् हे अर्जुन, इस विषम समय में तुम्हें यह मोह कहाँ से आने लगा! ऐसे समय में इस प्रकार का मोह आर्य लोगों के लिये अनजाना है! सुखकर नहीं है! कीर्ति पर धब्बा लगाने वाला है!
प्रत्येक भारतवासी सहित विश्व के उन मेहनतकश प्रतिभाशाली योग्य लोगों को ,जिनके साथ सिस्टम ने धोखाधड़ी करके उनको बेरोजगार, गरीब, बिमार, बदहाल, भूखमरी से ग्रस्त बना दिया है उनको श्रीमद्भगवद्गीता के इस श्लोक से शिक्षा लेकिन भाग्य के भरोसे बैठने की अपेक्षा अपने अधिकारों के लिये भ्रष्ट और लूटेरे सिस्टम से लडना चाहिये!
ध्यान रहे कि महाभारत का युद्ध कोई विरोधी वृति्तयों का आध्यात्मिक संघर्ष न होकर भौतिक संसार में लडा जानेवाला युद्ध था! यह युद्ध हरेक मनुष्य,संगठन, परिवार, समाज, राज्य और राष्ट्र को लडते रहना चाहिये! हमारी सुंदर धरती पर प्राकृतिक संसाधनों, धन, धान्य,फल, फूल,औषधि, जंगल, नदियों, पहाडों, वर्षा, धूप, हवा और प्राणवायु की कोई कमी नहीं है! धरती के मुट्ठी भर इन तथाकथित बडों की साजिश को समझ लो!मेहनतकश ,प्रतिभाशाली, ऊर्जावान और निष्ठावान जनमानस जब तक उपरोक्त तथाकथित बडों के षड्यंत्र को नहीं समझेगा, तब तक वह इसी तरह से गरीब, बेरोजगार, बदहाल, बिमार, भूखा,प्रताड़ित और जुल्म का शिकार बनता रहेगा!
हमारे सबके सनातन धर्म के ग्रंथों वेद, उपनिषद्, दर्शनशास्त्र और श्रीमद्भगवद्गीता में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि केवल भाग्य के भरोसे बैठकर गुलामों, दासों, बिमारों, भूखों और प्रताडितों का नारकीय जीवन जीते रहो!भगवान् श्रीकृष्ण ने तो मेहनतकश पुरुषार्थी लोगों को दैवी संपदा से संपन्न माना है तथा भ्रष्टाचार में लिप्त लूटेरों को आसुरी कहा है! लेकिन समय का फेर देखिये कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे लूटेरों ने अपने आपको धर्म और अध्यात्म का पहरेदार घोषित करके लूटखसोट करने वाले भ्रष्ट नेताओं, पूंजीपतियों, अमीर घरानों की मदद करना शुरू कर दिया! दैवी संपत्ति के स्वामी मेहनतकश लोगों के लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक 16/5 में कहा है-
दैवी संपद् विमोक्षाय
निबंधायासुरी मता!
मा शुच: संपदं दैविमभिजातो अस्मि पांडव:!!
अर्जुन आजकल के मेहनतकश प्रतिभाशाली लोगों के प्रतिनिधि कर्मयोगी हैं!अर्जुन के माध्यम से भगवान् ने आजकल के मेहनतकश जनमानस को अव्यवस्था, अधर्म, अन्याय, भेदभाव और विषमता के विरोध में लडने को कहा है! भाग्य के भरोसे बैठकर प्रतीक्षा करने के लिये नहीं कहा है! इसलिये भौतिक क्षेत्र पर हरेक कर्मशील व्यक्ति को भाग्य के भरोसे बैठकर अपने आपको गरीबी, बदहाली, अभाव, भूखमरी और बेरोजगारी के नरक में नहीं डाले रखना चाहिये! अधिकार प्राप्ति के लिये राजनीति,मजहब,सिस्टम, न्याय और अर्थव्यवस्था में बैठे हुये लूटेरों से लडाई लडते रहना आवश्यक है!
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र- विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119