आधुनिक दोहे
आधुनिक दोहे
इंसान ही इंसान को अब, कर रहा शर्मसार,
नहीं कोई दिख रहा है, अब बचावन हार।।
छोटी सी है ज़िंदगी, करता कुकर्म हज़ार,
ना जाने कब पाएगा, यह नर भव को पार।।
मात-पिता के संग अब, रहना नहीं स्वीकार,
एक बेटा और बेटी से, नहीं बनता परिवार।।
आधुनिकता की होड़ में, त्यागे वसन विचार,
ना जाने कहाँ जाएँगे, कुछ तो सम्भल सुधार।।
स्वार्थ की अंधी दुनिया, में दौड़े पग हज़ार,
कोल्हू सम चलता रहा,जीवन बना निस्सार।।
मुट्ठी बांधे आया था और हाथ पसारे जाना,
मत हो गाफ़िल माया में, यही पड़ा रह जाना।।