आधुनिकता की अन्धी दौड़
हमे समाज में कई प्रकार के रूप देखने को मिलते है I कही बच्चो का शारीरिक शोषण तो कही मानसिक शोषण होता है I आधुनिकता की इस अन्धी व बेवपवाही की दौड़ मे नौनिहाल अपना सुखमय बचपन भूल गया है I नन्हे परिन्दो की आकाश भरी उड़ान, तितिलियो के पीछे दौड़ता बचपन, माटी के घर बनाते बच्चे, गुड्डा-गुड़िया की शादी, रेत पर नाम लिखना मिटाना, छोटे छोटे बर्तनो से खेलना ,कागज की कश्ती बहाना भूल गये है I आज उनपर बचपन से ही इतनी अपेक्षाये लाद दी जाती है कि नौनिहाल उस पढ़ाई के बोझ मे इस कदर दब जाता है कि वह अपना बचपन जी नही पाता I टीवी की चकाचौंध ने बच्चो को अपनी तरफ़ आकर्षित किया हुआ है ऐसे मे तो बच्चो पर दोहरा भार होता है I पढ़ाई भी करनी है और दूसरी प्रकार की गत विधियो में भी भागित होकर प्रथम पुरुस्कार लाना है I दूसरी अोर बच्चो को मां का आन्चल, माँ के हाथ का स्नेह से लबालब खाना नहीं आधुनिक खिलोने और पिज़्ज़ा बर्गर चाहिये I श्याम सलोने की नटखट शरारतो से पीछे छुटता बचपन अब डोरेमोन ,शिनचैन, बैटमैन ,स्पाइडर मैन, सुपरमैन का दीवाना हो गया है I बच्चे अपनी मात्रभाषा ना सही से लिख पाते है न ही बोल पाते है I अंग्रेजी पर भी उनकी पकड़ मजबूत नहीं हो पाती I आज नौनिहाल विद्या के आलय मे भी सुरक्षित नहीं रह गया है I क्या पता किस माँ का लाल शाम का ढलता सूरज ना देख पाय I समाज के वहशी दरिन्दो ने इंसानियत की कब्र खोद दी है I अब बची है तो केवल पैसे की भूख, हवस, गंदापन,लालच और बेकार की शान शौकत I बच्चे तो कच्ची मिट्टी के माधो होते है जैसे ढालो ढल जाते है, कोरे कागज होते है जैसे मोड़ दिया मुड़ जाते है I जिस रंग मे रंग दो रंग जाते है I आज आलम यह है कि बच्चे खुद के माँ बाप से बाते साझा नहीं कर पाते है I हैरानी होती है जब आठ नौ साल का बच्चा कंडोम, सैनिटरी पैड,मासिक धर्म और अपने निजी रिश्तो की चर्चा आपस मे करता है I ये कैसा बचपन है ? क्या सीख रहे है हम ? क्या सिखा रहे है हम ? आठ साल के बच्चे की मासूमियत के वजाय ये सारी चर्चा? वक़्त बदल रहा है I बच्चे अब बच्चे नहीं सीधे बड़े हो जाते है I सारी चीजे समय और जरुरत पर समझी जाती है I आज सात आठ साल का बच्चा निजी जिंदगी के रिश्ते बनाता है I कभी बचपन मे बच्चो को भाई बहन का रिश्ता सिखाया जाता था I आज केजी कक्षा का बच्चा भी
गर्लफ़्रैड ,वायफ़्रैड का रिश्ता रखना चाहता है I भाई बहन बोलना आज शर्मनाक लगता है और गर्लफ़्रैड ,वायफ़्रैड बोलना आधुनिक लगता है I न जाने कहाँ चला गया वो बचपन वाला इतवार,कहाँ लुप्त हो गया मासूम बचपन I अब दौड़ है सिर्फ़ अन्धी आधुनिकता की I
युक्ति वार्ष्णेय “सरला”
मुरादाबाद