आधी रात को……
आधी रात को….
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इन नासमझों में,
एक समझदार दिखते बस, आप तो…
जैसे, अंधेरी रातों में भी;
चांद चमके , आधी रात को;
हम अगर कुछ कह भी दें, ऐसा- वैसा;
तो बुरा मत मानो,
मेरी किसी भी बात को।
जैसे, अंधेरी रातों में भी …..
जगह का दोष क्यों दूं, ज्यादा;
कर्म से जब, सब बन गए हैं यहां; प्यादा।
क्या पहचाना, क्या अनजाना;
सब मुसाफिर है यहां,
आना-जाना तो लगा रहता सबका,
हर दिन और रात को।
जैसे, अंधेरी रातों में भी …..
फिर भी, डरने की क्या बात है;
हम संग अगर रहें सदा;
तेरे साथ तो…
जैसे, अंधेरी रातों में भी;
चांद चमके आधी रात को…..
मैने भी इस दुनिया को देखा और
लिख डाला ऐसा कुछ आधी रात को…
जैसे अंधेरी रातों में भी,
चांद चमके आधी रात को….
आधी रात को……
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स्वरचित सह मौलिक
…..✍️पंकज “कर्ण”
……….कटिहार।।