आदि सृष्टि सँ ….
एक कण सँ दोसर कण धरि ….
एक परान सँ दोसर परान धरि….
पुरातन चेतन सँ नवचेतन धरि….
अखण्ड नित चलए सतत प्रक्रिया रहए
आदि सृष्टि सँ …. भविष्यक गतर धरि ……
आत्म रूप अंश व्याप्त अछि ….
ओछल अछि …. तल्लीन अछि …..
उ परमपिताक अंश मे
इ सब प्रयोजन मे
जे कहू न कहू पिरोयल गेल अछि
सबटा परान के एक सूत्र मे
मुदा
ओ आत्मा रूप अंश
जे सम्प्रेषित करैत अछि
हमर हृदय तार केँ….
व्यत्यास के ….
जे युग-युग सँ
बान्हल हम अछि
हमर मृत्यु एकटा चक्का जे
एक शरीर सँ दोसर शरीर धरि….
एक परान सँ दोसर परान धरि ….
जँ भगवद्गीता मे
केशवक कथन होय —
“अजर-अमर आत्माक,
शरीर रूप चादर कँ,
निरन्तर बदलत रहल अछि….”
जँ काँशी क जुलाह
कबीर क कथन होए—
“चदरिया झीनी र झीनी…. ”
भजनस्वरुप गुन्जमान भऽ रहल अछि
अनेक सदियों सँ वसुंधरा मे
विचितरा अलौकिक शांति संगे!!
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