आदिवासी
कैसा देश-किसका देश
जिसका होगा-उसका देश
भगतसिंह ने-कब सोचा था
निकलेगा एक दिन-ऐसा देश…
(१)
सुनकर गालियां
और खाकर लातें
सड़कों पर गुजरतीं
हमारी रातें
अपना तो एक-घर भी नहीं
कैसे होगा-सारा देश…
(२)
जंगल,जल,
जोरू और ज़मीन
हमसे छिनीं
सारी चीज़ें हसीन
जीवन काले-पानी की सज़ा
हमारे लिए-एक कारा देश…
(३)
कलेजे पर है
चलती आरी
मक़तल बनी है
नक्सलबाड़ी
तेरे मुंह की-कालिख है
ये इंसानी लहू की-धारा देश…
शायर-
शेखर चंद्र मित्रा
सेवरही (कुशीनगर)
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