आदमी
आदमी सोचता है कुछ लिखे…….
जिंदगी के अ०यावहारिक होते
जा रहे समस्त शब्द से
सार्थक वाक्य बना दे
मुक्त हो जाए उन आरोप से
जिसे स्वयं पर आरोपित कर
थक चुका है, उब चुका है
आदमी सोचता है कुछ करे…..
सतत मरते हुए कुछ पल जी ले
जीवन के मसानी भूमि पर चंद
उम्मीदों की लकडियाँ ले कर
जला डाले उदासीनता के कफ़न
अचंभित कर दे आदमी ही आदमी को
आदमी सोचता है कुछ कहे……..
जो कह न पाया कभी किसी से
और न जाने क्या क्या
कहता रहा तमाम उम्र
कि बस एक बार अपनी बात
कह तो ले,भीतर के पार्थिव मौन
पिघला तो ले,अपना किरदार निभा तो ले
आदमी सोचता है,वाकई सोचता है
सोचता ही रह जाता है……….
हर बार मौका हाथ से निकल जाता है
आदमी,आदमी कहाँ बन पाता है—–