आदमी
आदमी मुक्कमल हो तो कोई बात बने भले
घर में गर दाना न हो तो कैसे न दिन रात खले
हमरी देहरी पे तो दिया भी बुझा हुआ रक्खा है
कतरा ए रौशनी झांकें जब चांद गगन में चले
हमें पुर उम्मीद किया गया था बरसों पहले
उस उम्मीद को उनके ही खींसे में न टटोले तो काम कैसे चले !
~ सिद्धार्थ
क्या किजे जब इंसान में इंसान मर गया
अंदर बहते नदी में विष जैसा कुछ घुल गया !
~ सिद्धार्थ